बेतरतीब पन्नों की तरतीब - हरीचरन प्रकाश

संजय चौबे के उपन्यास ‘बेतरतीब पन्ने’ के एक अंश के पाठ से मैं अपनी बात आरम्भ करता हूँ | वह लिखते हैं - ‘अतीत की चादर ओढ कर पड़े रहना, कितना अच्छा लगता है; लेकिन कुछ अधिक देर के लिए यूं पड़े रहने पर स्वयं ही मरे होने का भान होता है| इसलिए वर्तमान की जमीन पर चलते–चलते हम भागने लगते हैं |’ इस चलने और भागने में एक नैरन्तर्य है जैसे कि उनके पिछले उपन्यास ‘9 नवम्बर’ और इस उपन्यास ‘बेतरतीब पन्ने’ में भारतीय इतिहास के कुछ दुस्सह प्रेतों की लीला का एक नैरन्तर्य है| ‘9 नवम्बर’ में वह अपने भीतर चलते है तो ‘बेतरतीब पन्ने’ में वह अपने अन्दर भागते हैं| ‘9 नवम्बर’ की जो समीक्षा ‘पाखी’ पत्रिका के मई 2015 के अंक में ‘सनातनी भारत के प्रेतों से लडाई’ शीर्षक से छपी थी, उसमें यह कहा गया था कि 9 नवम्बर 1989 की तिथि उपन्यास के मानस का नाभिकीय केन्द्र है| उपन्यासकार ने इस तिथि को दो सन्दर्भों में प्रयुक्त किया था : 9 नवम्बर 1989 को बर्लिन की दीवार गिरी थी और इसी दिन सनातन भारत में रामजन्म भूमि पर शिलान्यास हुआ था| संयोग ही है कि...