हिन्दी में बोलना “उद्दंडता” है !


(भारत के सबसे बड़े प्रांत की सरकार ने एक फैसला लिया है कि अब बच्चों को पहली कक्षा से ही अंग्रेजी की शिक्षा प्रदान की जायेगी. इस फैसले के पीछे के जो भी कारण हों, मेरी समझ से हिंदी में बोलना बदतमीजी है और इसीलिए अंग्रेज़ी सीखना आवश्यक है, आखिर बदतमीजी ठीक बात तो नहीं. पूरी विनम्रता से 2015 में लिखा गया यह लेख आपके लिए हिंदी में प्रस्तुत है क्योंकि अंग्रेज़ी मुझे आती नहीं. गुस्ताखी माफ़ हो !)  

हिन्दी के नाम पर होने वाले बड़े राजकीय पर्वों का सितंबर माह दस्तक दे रहा था। लगभग एक पखवाड़े बाद आयोजित होने जा रहे बहुचर्चित विश्व हिन्दी सम्मेलन की आयोजन स्थली भोपाल से मैंने यात्रा प्रारंभ की। वायुयान में मुझे इमरजेंसी गेट के पास वाली सीट मिली थी। उड़ान की औपचारिकताओं को पूरा करने हेतु एयर होस्टेस ने जरूरत पड़ने पर आपातकालीन द्वार खोलने के संबंध मे बताना आरंभ किया। द्वार खोलने की प्रक्रिया को बेहतर तरीके से समझने की खातिर मैंने फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोल रही एयर होस्टेस को बीच मे टोका और अनुरोध किया कि वे हिन्दी में समझाएँ। एयर होस्टेस ने मेरे पास बैठी सुदर्शन सहयात्रिणी से यह पूछा कि क्या वे हिन्दी समझती हैं। उस सुदर्शन सहयात्रिणी के हाँ कहने पर एयर होस्टेस ने विनम्रता से स्पष्ट हिन्दी मे अपनी औपचारिकता पूरी की। अपनी बात पूरी करने के बाद जैसे ही वह जाने को हुई, मैंने उसे रोका; पास बैठी सहयात्रिणी से आग्रह किया कि वे मेरी बातों को अन्यथा न लें और एयर होस्टेस से पूछा–
       “आपने मैडम (पास बैठी सहयात्रिणी) की भावनाओं का ख्याल किया, पूछ कर अच्छा किया कि उन्हें हिन्दी आती है या नहीं। लेकिन मुझसे क्या नाराज़गी थी– मुझसे भी पूछ लेतीं कि मुझे अंग्रेज़ी आती है या नहीं तो अच्छा होता। या फिर आप ये मान बैठीं थीं कि भोपाल से दिल्ली जाने वाली फ्लाइट में बैठा यात्री कम से कम अंग्रेजी तो जानता ही होगा भले ही उसे हिन्दी आती हो या न आती हो।”
 “सॉरी” जैसे अंग्रेज़ी के एक सशक्त शब्द का प्रयोग कर मसले को विराम दे दिया गया, लेकिन भावनाओं के चक्कर में वातावरण थोड़ा असहज हो गया और उस असहज वातावरण ने यह अहसास कराया कि मैं ओवरस्मार्ट बनने की कोशिश कर रहा था। भावनाएं भी बड़ी विचित्र होती हैं– भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचनी चाहिये। भावनाओं को ठेस पहुँचने पर व्यक्ति भीड़ का रूप ले लेता है और भीड़ किसी व्यक्ति को पीट–पीट कर मार सकती है, घरों व बस्तियों को जला सकती है। कहते हैं हमें भावनाओं का ध्यान रखना चाहिये; लेकिन इसकी माया भी बड़ी विचित्र है। जैसे ही बात हिन्दी की आती है किसी को भोजपुरी, मैथिली तो किसी को तेलगु–तमिल की याद आने लगती है। इस महान देश के सभ्य इंसानों के अंदर का बंदर जाग्रत हो जाता है और सारे बंदर आपस में एक दूसरे को नोचने–काटने लगते हैं। जब शोर कुछ ज्यादा बढ़ने लगता है कुछ समझदार बंदरों के संग पृथ्वी ग्रह की सर्वश्रेष्ठ विक्टोरिया मौसी के प्रतिनिधि आते हैं और यह स्थापित हो जाता है कि जब विकास/प्रगति/तरक्की की एक भाषा मौजूद है तो अपनी पिछड़ी भाषाओं से चिपके रहने का क्या मतलब ? सारे बंदर सहमति में सिर हिलाते हैं।
अब श्रेष्ठ बनने की भावना प्रबल हो जाती है और अंग्रेज़ी के बिना श्रेष्ठ होने की कल्पना भी दूभर है। हिन्दी में बोलने पर अहिन्दी भाषियों की भावना का ध्यान न रखे जाने का प्रश्न तुरंत उठने लगता है लेकिन अंग्रेज़ी बोलने से पूर्व उसके समझे जाने के प्रश्न पर विचार करना ही बेवकूफाना है– अंग्रेज़ी देववाणी है और जो देववाणी समझ नहीं सकते, वे जाहिल हैं। जाहिलों को कोशिश करनी होती है कि वे देववाणी समझें। अंग्रेज़ी बोलने वाले लोग श्रेष्ठजन हैं और श्रेष्ठजन तो अपनी उत्तम भाषा मे ही बोलेंगे भले वह किसी जाहिल की समझ में आए या न आये। तो कुल मिलाकर जो लोग सामने वाले की भावना का ध्यान रख कर अंग्रेज़ी में बात करने की विनम्र मजबूरी का प्रदर्शन करते हैं, मूलतः यह अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शनभाव होता है कि हाँ हम भी पृथ्वी ग्रह की श्रेष्ठतम प्रजाति के अंग हैं। अब जो बेचारा अंग्रेज़ी नहीं समझ सकता वह कैसे कहे कि उसे अंग्रेज़ी समझ में नहीं आती। कहने को तो मैंने उस एयर होस्टेस को उपदेश दे डाला था कि वह अंग्रेज़ी मे बोलने से पहले यह पूछ ले कि अंग्रेज़ी समझ मे आती या नहीं। लेकिन सोचिए यह पूछने पर लोगों की भावना को किस कदर ठेस पहुँचेगी और हो सकता है श्रेष्ठजनों के परिवार का कोई सदस्य उस एयर होस्टेस को अंग्रेज़ी मे गाली देते हुए यह सवाल कर बैठे कि जाहिल समझने की उसकी हिम्मत कैसे हुई। यानी तह में दो तरह की भावना काम करती है– श्रेष्ठता की भावना और हीन भावना।
भारत में श्रेष्ठता की भावना या हीन भावना का सिर चढ़ कर बोलना एक दिन की घटना नहीं है। लॉर्ड मैकाले (जिसकी नजर में अग्रेजों के अतिरिक्त पृथ्वी की सारी प्रजाति बर्बर व असभ्य थी) ने इसकी नींव फरवरी 1835 में मिनट ऑन इंडियन एजुकेशन के माध्यम से रखी, उस नींव पर अगले 112 सालों तक अंग्रेजों ने मनोग्रंथियों के मजबूत भवन बनाने का काम किया। उसके बाद फिर श्रेष्ठता अथवा हीन भावना को मजबूत करने के इस काम को जबसे भारतवासियों ने अपने हाथ में लिया है तब से क्या कहना। वैसे श्रेष्ठता या हीनता की मनोग्रंथियों के साथ जी रहे लोग, जिनके अंदर लॉर्ड मैकाले की यह बात कि सभ्य होने के लिए अंग्रेज होना आवश्यक है, भूल जाते हैं कि सत्तर साल पूर्व सभ्य लोगों द्वारा एशिया के एक छोटे से मुल्क को अनावश्यक एटमी हमले से तबाह करने के बावजूद वह अपनी भाषाई व राष्ट्रीय अस्मिता के साथ खड़ा होता है। पड़ोस का एक विकासशील देश, चीन अपनी भाषायी अस्मिता के साथ खड़ा हो लॉर्ड मैकाले की जीवित आत्मा को ठेस पहुँचाने के लिए काफी है कि यदि चीन के साथ रिश्ता रखना है तो आपको चीनी सीखनी होगी। ग्लोबल भाषा का ढ़ोल पीटने वाले लोगों को इस तथ्य का भान नहीं रहता कि यूरोप के ही तमाम मुल्क अंग्रेज़ी का प्रयोग करना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। इन तथ्यों के बरक्स भारत का सच यही है कि यदि आपको अंग्रेजी नहीं आती तो आप कमतर हैं, आप अन्य के मुकाबले हीन हैं।
तो हीन भावना से ग्रस्त भारतीय अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूलों मे दाखिल करवाता है। 28 सितंबर 2015 के टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक खबर के मुताबिक पिछले पाँच वर्षों में इंग्लिश मीडियम स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या में 90% की बढ़ोतरी हुई है जबकि इसी अवधि मे हिन्दी मीडियम स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या मे मात्र 25% की बढ़ोतरी हुई (यह बात दीगर है कि अभी भी हिन्दी मीडियम स्कूलों में 10.37 करोड़ बच्चे पढ़ रहे हैं जबकि इंग्लिश मीडियम स्कूलों में 2.90 करोड़ बच्चे)। यद्यपि इस बात का भ्रम रहता है इंग्लिश मीडियम स्कूल जाने से समस्या का हल हो जायेगा, लेकिन माँ–बाप की हीन भावना दूर करने के चक्कर में अबोध बच्चे भाषा की चक्की में पिसने लगते हैं और तमाम संभावनाशील बच्चे केवल इसी कारण पढ़ाई में पिछड़ जाते हैं कि उनकी पढ़ाई का माध्यम उनके परिवार – मुहल्ले की भाषा से नहीं मिलता। भले ही ये बच्चे अंग्रेज़ी में कुछ बोलने की योग्यता हासिल कर लेते हों, वे पढ़ाई में पिछड़ चुके होते हैं। अगर आप देखना चाहें तो आपको ऐसे तमाम प्रतिभावान बच्चे मिल जायेंगे जो गणित या विज्ञान के सवाल केवल इस कारण हल नहीं कर पाते कि अंग्रेज़ी में पूछा गया सवाल या उसका जवाब उन्हें समझ में ही नहीं आता। कुछ दिनों पूर्व लोक सभा में एक प्रश्न के लिखित जवाब में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने जो कहा वह चौंकाता है– पिछले तीन वर्षों में आई आई टी की पढ़ाई बीच में छोड़ने वाले बच्चों की संख्या 2,060 थी और इसी अवधि में देश के विभिन्न नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालजी (एन आई टी) से 2,352 थी। केंद्रीय मंत्री के मुताबिक पढ़ाई बीच में छोड़े जाने के मुख्य कारणों मे एक अकैडमिक स्ट्रैस था। प्रसिद्ध दैनिक अख़बार हिंदुस्तान का संपादकीय इस एकडेमिक तनाव की पीड़ा को बयान करता है। सोचिएगा निम्न मध्यम वर्ग के बच्चे जो जीवन मृत्यु का प्रश्न बना कर इन इंस्टीट्यूटों में दाखिल होने के लिए एंट्रैन्स टेस्ट की तैयारी करते हैं, दाखिले के पश्चात किन परिस्थितियों में अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ते होंगे। मन में ख्याल तो आता होगा कि आर्किमिडीज़ या न्यूटन के सिद्धांत को हिन्दी में भी समझा जा सकता था।
इसी के साथ एक दूसरी अहम बात है अंग्रेजी आम और खास के भेद को बनाए रखने में मददगार होती है। मेरे एक मित्र जो एक हिन्दी पत्रिका के संपादक हैं ने एक बातचीत में कहा था–
“अंग्रेज़ी के द्वारा बना आम और खास का यह भेद शोषण की बुनियाद तय करता है जो खास लोगों के हितों का पोषण करता है। जज साहब ने अपना फैसला अंग्रेज़ी में लिखा, डॉक्टर साहब ने अंग्रेज़ी में दवा लिखी, महाजनों (बैंकों) ने अंग्रेज़ी में लिखे दस्तावेज पर हस्ताक्षर कराया, नियोक्ता/मैनेजमेंट ने अपने कर्मचारियों के लिये अंग्रेज़ी मे सर्विस रुल बनाए, साहबों ने उसकी समस्या का हल अंग्रेज़ी में बताया– आम आदमी को कुछ समझ में नहीं आया। आम आदमी को समझ में आने पर खास लोगों की कुर्सियां हिलने लगती हैं।”  
तो पूरी कोशिश रहती है कि यह भेद बना रहे। ऊपरी तौर पर हिन्दी को बढ़ावा देने के नाम पर जो पाखंड जारी है, यदि वह पाखंड मात्र होता तो कोई खास बात नहीं होती। हिन्दी को बढ़ावा देने के नाम पर उसे विशुद्ध अनुवाद की भाषा बना कर उसका प्रयोग दुरूह बना देना कहीं साजिश तो नहीं। वकील को अधिवक्ता कहना, कानून को विधि कहना और तो और रेल को लौहपथगामिनी कहना– ऐसा करने वाले नीति नियंता क्या वास्तव मे भोले थे या हैं। क्या उन्हें पता नहीं कि भाषा का विकास होता रहता है, भाषा का निर्माण/सृजन एक रात की घटना नहीं होता। भाषा लगातार विकसित होती रहती है जो वक्त की जरूरत के मुताबिक शब्दों का आदान–प्रदान करती रहती है। कुल मिलाकर कुछ ऐसा करो कि अंग्रेज़ी न जानने वाले उपहास के पात्र बने रहें और खास लोगों की माया उनकी समझ से परे हो।
बेचारा आम आदमी समझ नहीं पाता, उसके साथ क्या हो रहा है – उसमें इतना नैतिक साहस नहीं होता कि वह हिन्दी में सवाल कर सके और यदि वह श्रेष्ठजनों से नजरें मिला कर हिन्दी में बात करता है तो यह उसकी धृष्टता मानी जाती है। चूँकि हिन्दी न जानने वालों से यही अपेक्षित रहता है कि वह आत्मग्लानि में हकलाएगा, ऐसे में उसका आत्मविश्वास से लबालब होना उसकी उद्दंडता का एहसास दिलाता है। श्रेष्ठजनों को परेशानी हो सकती है लेकिन मोहनदास करमचंद गांधी नामक व्यक्ति जो अंग्रेज बनने की कोशिश मे घंटो आईने के सामने रहता था एक दिन कोट–टाई फेंक धोती लपेट जब तन कर खड़ा हो गया तो सभ्य लोगों की राजधानी में हलचल माच गई। तो एक शरारत चाहिये, थोड़ी बदतमीजी, थोड़ी उद्दंडता कि जब श्रेष्ठजन अपनी कुलीन भाषा अंग्रेज़ी में बोलना आरंभ करें तो हम हिन्दी में सवाल करें, हिन्दी में जवाब माँगे क्योंकि यह एक भाषा का सवाल नहीं है, यह अपने हक की बात है, स्वयं को स्थापित करने का सवाल है। एक सवाल कि जब दोनों हिन्दी जानते हैं तो अंग्रेज़ी बोल एक पहेलीमय वातावरण का सृजन क्यों– बस इसलिए कि वे खास बने रहें और आम पर उनकी धौंस चलती रहें।   
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