संदेश

मार्च, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

इबादतगाह में सन्नाटा

चित्र
नज़रबंदी के इस दौर में हम एक-दूसरे का हाल-चाल कुछ अधिक ही पूछने लगे हैं. रंगीलाल जी बड़े पुराने मित्र रहे हैं. इधर कई सालों से उनसे बातचीत नहीं हो पाई थी , कल उनका फोन आया , " भैया , अब तो मानोगे कि कोई केन्द्रीय शक्ति है , जो इस दुनिया को चलाती है." रंगीलाल जी बड़े भोले इंसान हैं , वे अनावश्यक समय बर्बाद नहीं करते और मौक़ा मिलते ही सबको अपने रंग में रंगने लगते हैं. मैं क्या कहता , अमूमन मेरे पास कहने के लिए बहुत कुछ नहीं होता और रंगीलाल जी की बात तो ठीक ही थी. हमारे लिए एक मर्कज़ी साहिबे इख्तियार तो हैं ही , जिनके ऐलान के साथ हम सब अपनी मर्जी से नज़रबंद हो गए. ये बात दूसरी है कि जोश में कुछ बड़े साहब लोगों ने घंटा बजाने व शंख पूरने के लिए सड़क पर जुलूस निकाल लिया , जबकि मस्नदनशीं साहिबे इख्तियार ने अपने-अपने घरों से न निकलने की हिदायत दी थी. हो जाता है अक्सर , दिमागी-दड़बे की दीवार-ओ-छत के बेहद मजबूत होने पर होने लगता है ये सब.        खैर , रंगीलाल जी ने जिस केन्द्रीय शक्ति अथवा ईश्वर की बात की थी , उस ईश्वर के होने का सवाल लगातार मथता रहा है. सदियों से इंसान क...

किशोर मन की मासूम जिद को बयां करती किताब

चित्र
"दीपक की चमक में आग भी है दुनिया ने कहा परवानों से परवाने मगर ये कहने लगे दीवाने तो जलकर देखेंगे..." एक पुरानी फिल्मी गीत के इन पंक्तियों को राजेंद्र कृष्ण ने लिखा था कभी. ये बोल पुराने तो हैं, लेकिन कितने पुराने ?? साल-दो साल, दस साल, बीस-पचास, सौ साल  -- आखिर कितने पुराने !! फिर से सुनिये - 'परवाने मगर ये कहने लगे / दीवाने तो जलकर देखेंगे...' 'दीवाने तो जलकर देखेंगे !' - ये दावा आखिर कितना पुराना है. नि:संदेह पुरातन, सबसे पुराना. बेहोशी का अंधेरा जैसे ही छंटता है, होश की पहली किरण के साथ पहली घोषणा इसी बात की होती है कि 'देखेंगे !' इसमें जोखिम लेने एवं चुनौती की गूंज है लेकिन नफरत एवं घृणा जनित हिंसा अथवा आक्रमण की धमकी नहीं. इसमें प्रेममय सृजन हेतु कुर्बानी की जिद है. झूठी शान, झूठी इज्जत का अहंकार लिए एक पिता अपने बच्चों को दुनियादारी, व्यवहारिकता व समझदारी के नाम पर जब नफरत का पाठ पढ़ा रहा होता है तभी उस नासमझ बच्चे अथवा किशोर के अंदर कोमल सी जिद आकार लेने लगती है जिसे वह किशोर 'प्रेम' कहता है और मन ही मन दुहराता है -'देखेंगे...

आदमी को प्यास लगती है -- ज्ञानेन्द्रपति

चित्र
ज्ञानेन्द्रपति कालोनी के मध्यवर्ती पार्क में  जो एक हैंडपम्प है  भरी दोपहर वहाँ दो जने पानी पी रहे हैं  अपनी बारी में एक जना चाँपे चलाये जा रहा है हैंडपम्प का हत्था  दूसरा झुक कर पानी पी रहा है ओक से  छक कर पानी पी, चेहरा धो रहा है वह बार-बार  मार्च-अख़ीर का दिन तपने लगा है, चेहरा सँवलाने लगा है,  कण्ठ रहने लगा है हरदम ख़ुश्क ऊपर, अपने फ्लैट की खुली खिड़की से देखता हूँ मैं  ये दोनों वे ही सेल्समैन हैं  थोड़ी देर पहले बजायी थी जिन्होंने मेरे घर की घंटी  और दरवाजा खोलते ही मैं झुँझलाया था  भरी दोपहर बाज़ार की गोहार घर के चैन को झिंझोड़े  यह बेजा ख़लल मुझे बर्दाश्त नहीं  'दुनिया-भर में नंबर एक' -- या ऐसा ही कुछ भी बोलने से उन्हें बरजते हुए  भेड़े थे मैंने किवाड़  और अपने भारी थैले उठाये शर्मिन्दा, वे उतरते गये थे सीढ़ियाँ ऊपर से देखता हूँ  हैंडपम्प पर वे पानी पी रहे हैं  उनके भारी थैले थोड़ी दूर पर रखे हैं एहतियात से, उन्हीं के ऊपर  तनिक कुम्हलायी उनकी अनिवार्य मुस्कान और मटियाया ...