संदेश

गंगा-बीती

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आमतौर पर हाल में प्रकाशित किसी किताब पर लिखने से बचना चाहता हूं। इसका कारण है कि ऐसी किसी कृति पर कुछ लिखने अथवा बोलने मात्र को आलोचना अथवा समीक्षा समझा जाने लगता है और मेरे अंदर आलोचना अथवा समीक्षा हेतु वांछित योग्यता व साहस का सर्वथा अभाव है। यह कार्य मुझे बेहद कठिन लगता है और इरिटेटिंग भी। इसके बरक्स किसी रचना में डूबना, उतराना बड़ा आनंद देता है। साथ ही किसी रचनाकार की पंक्तियों को अपनी सुविधा के अनुसार उद्धृत करना भी अच्छा लगता है। यद्यपि अपनी सुविधा के अनुसार किन्हीं पंक्तियों का अर्थ अथवा भाव बदलना बदतमीजी व बेशर्मी की श्रेणी में आ सकता है, जाने-अनजाने यह गुस्ताखी हो जाती है। पाठकीय स्वतंत्रता के नाम पर ऐसी गुस्ताखियों को माफी मिल सकती है। लेकिन यह माफी संभवत आलोचकों/समीक्षकों के लिए उपलब्ध नहीं होती - कहते हैं उनके अंदर संवेदनात्मक ज्ञान का एक न्यूनतम स्वीकार्य स्तर तो होना ही चाहिए। और पाठक !! वह पूर्णतः स्वतंत्र है, उसकी कोई बाध्यता नहीं, कोई न्यूनतम अहर्ता, कोई बंदिश नहीं; अनुशासन भी नहीं। इसीलिए पाठकीय स्वतंत्रता (या कि स्वच्छंदता - पूर्णतः अनुशासनहीन) की मस्ती के साथ किताब...

नचिकेता से डरता समाज

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        यजुर्वेद की दो शाखाओं में से एक है – कृष्ण यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद की कठशाखा से कठोपनिषद् निकलता है. मात्र दो अध्यायों और 118 श्लोकों में सिमटे कठोपनिषद् का विस्तार बहुत बड़ा है; उसके कई श्लोक हूबहू भगवान श्रीकृष्ण की जुबानी श्रीमद्भगवद्गीता में उतरते हैं. लेकिन कठोपनिषद् अप्रतिम बनता है – नचिकेता के कारण.        नचिकेता की कथा कमोबेश हमें मालूम है. मालूम होने के बावजूद हम नचिकेता की चर्चा करने से बचते है; उसका उल्लेख नहीं किया करते हैं. कारण स्पष्ट है, नचिकेता का जिक्र जोखिम भरा है; हमारी समझ नचिकेता से डरती है. हमारे संस्कार , हमारा लोकाचार , हमारी मर्यादा सब नचिकेता की संभावना मात्र से दरकने लगते हैं. किस्से-कहानी , मिथकों , भाषणों आदि तक तो ठीक है , लेकिन नचिकेता जैसा बालक सचमुच हमारे सामने खड़ा हो जाए तो...        कथा बड़ी प्यारी है. वाजश्रवा अपनी दयालुता व दान के कारण प्रसिद्ध है. वाजश्रवा नाम ही काफी है. कठोपनिषद् के शंकर भाष्य का एक श्लोक है – “वाजमन्नं तद्दानादिनिमित...

भगत सिंह को जानते हैं ? भाग-3

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       कहने की जरुरत नहीं कि लोगों को भगत सिंह का नाम आकर्षित करता है. पिछले रविवार को टीकाचक में भगत सिंह की बात निकलने पर कई साथियों की प्रतिक्रिया आयी कि वे भगत सिंह के बारे में व उनके लेखन को पढ़ना चाहते हैं. कुलदीप नैयर द्वारा लिखित भगत सिंह की जीवनी पढ़ी जा सकती है. 223 पृष्ठों में सिमटी यह जीवनी ‘सरफरोशी की तमन्ना’ नाम से राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित है. इसमें भगत सिंह के दो महत्वपूर्ण लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ ?’ और ‘बम का दर्शन’ भी शामिल है. इसके अतिरिक्त आधार प्रकाशन , पंचकूला ने ‘भगत सिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज ’ नाम से भगत सिंह का समग्र लेखन प्रकाशित किया है. चमन लाल के संपादन में प्रकशित यह किताब 478 पृष्ठों की है और इसकी भूमिका भगत सिंह के छोटे भाई कुलतार सिंह ने लिखी है.        पढ़ना कम हुआ है और आज का भीड़-भारत किताबों की जगह अपनी धारणाओं को पुष्ट करने हेतु ‘प्रॉपगंडा सामग्री ’ को तरजीह देने में लगा है.  फिर भी सच जानने की भूख बनी रहती है. ऐसे में  किताबों के अतिरिक्त कोई और उम्मीद नहीं. इसलिए ...

भगत सिंह को जानते हैं ? भाग-2

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       23 मार्च 1931 को महज तेईस साल की उमर में भगत सिंह को फाँसी दी गयी थी. बीते तेईस मार्च को उनकी शहादत के अट्ठासी साल गुजर गए. साथ ही इक्कीसवी सदी में जन्में कई करोड़ बच्चे बालीग होकर इस वर्ष भारत की नयी सरकार के गठन की प्रक्रिया में हिस्सा लेने जा रहे हैं – वे पहली बार मतदान करने जा रहे हैं. ऐसे में अनायास ही भगत सिंह का ख्याल आ रहा है. हम सभी भगत सिंह का नाम जानते हैं और बार-बार उनका नाम दुहराते रहते हैं. ‘नाम जानते हैं ’ का सीधा मतलब है कि हम केवल नाम ही जानते हैं और बार-बार नाम दुहराये जाने के कारण ऐसा भ्रम हो जाता है कि हम भगत सिंह को जानते हैं.        औपचारिक रूप से शिक्षित लोगों के बीच का एक अनौपचारिक सर्वे कि वे भगत सिंह को कितना जानते हैं, बड़ा मजेदार रहा. यहाँ उल्लेखनीय है कि ये वे लोग थे जो हर बात पर उनकी दुहाई देते रहते कि ‘भगत सिंह के आदर्शों को भुला दिया गया , नहीं तो भारत एक अलग ही देश होता.’ उस सर्वे में शामिल लोगों की प्रतिक्रिया का एक नमूना है –        ‘वे पंजाबी थे / क्रांतिकारी...

सराय

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सूफी फकीर हुआ, इब्राहीम. पहले वह एक सम्राट था. एक रात उसने देखा कि, सोया अपने महल में, कोई छप्पर पर चल रहा है. उसने पूछा :        ‘कौन बदतमीज आधी रात को छप्पर पर चल रहा है ? कौन है तू ?’        उसने कहा : ‘बदतमीज नहीं हूं, मेरा ऊंट खो गया है. उसे खोज रहा हूं.’        इब्राहीम को हंसी आ गई. उसने कहा : पागल ! तू पागल है ! ऊंट कहीं छप्परों पर मिलते हैं अगर खो जाएं ? यह भी तो सोच कि ऊंट छप्पर पर पहुंचेगा कैसे ?’        ऊपर से आवाज आई : ‘इसके पहले कि दूसरों को बदतमीज़ और पागल कह , अपने बाबत सोच. धन में, वैभव में, सुरा-संगीत में सुख मिलता है ? अगर धन में, वैभव में, सुरा-संगीत में सुख मिल सकता है तो ऊँट भी छप्परों पर मिल सकते हैं.’        इब्राहीम चौंका. आधी रात थी, वह उठा, भागा. उसने आदमी दौड़ाए कि पकड़ो इस आदमी को. लेकिन तब तक वह आदमी निकल गया. इब्राहीम ने आदमी छुड़वा रखे राजधानी में कि पता लगाओ कौन आदमी था. क्या बात कही ? किस ...

हौआ और नुनेज़ की आँखें

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एच जी वेल्स की एक प्रसिद्ध कहानी है – ‘द कंट्री ऑफ़ द ब्लाइंड.’ अपने छात्र जीवन में हम सबने इसके संक्षिप्त रूप को पढ़ा होगा. आजकल अनायास ही इस कहानी की याद आ जाती है और मुझे लगता हैं हमें इस कहानी को बार-बार याद करते रहना चाहिए.        बड़ी प्यारी कहानी है और बहुत कुछ कह जाती है. एक पर्वतारोही है – नुनेज़ ! पर्वतारोहण के एक अभियान में नुनेज़ पहाड़ से फिसलता है और एक अनोखी घाटी में पहुँच जाता है. यह एक ऐसी दुनिया है जहाँ के लोग अँधे हैं लेकिन उन्हें अपने अँधेपन की खबर नहीं. वे जी रहे हैं और मस्त हैं अपनी दुनिया में. दिन और रात में कोई फर्क नहीं. नुनेज़ के मन में लालच आता है और वह अपने मन में दुहराता है – ‘अँधों में काना राजा.’ नुनेज़ सोचता है वह इस घाटी का राजा बनेगा क्योंकि उसके पास आँख है. वह सोचता तो है, वह अपने मन में दुहराता तो है कि ‘अँधों में काना राजा ’ लेकिन नुनेज़ पर्वतारोही है , राजनेता नहीं. उसने अपने जीवन में कई साहसिक काम किये थे , पहाड़ तोड़े थे सही अर्थों में – राजा बनने में उसके यही गुण बाधक बन गए. राजनेता होता तो चीजें बड़ी आसान हो जातीं. र...

सामने से मेरे : चंद्रेश्वर

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हम तो बड़े सीधे-साधे लोग हैं. जमाना कितना बेईमान है. कितनी लूट-खसोट मची है. उनको देखिये कितनी मौज में हैं. गाड़ी-बँगला, बैंक-बैलेंस कितना कुछ इकट्ठा कर लिया साहब. कितनी शान में जी रहे हैं.        हमारे अंदर मौज में जीने की, गाड़ी-बँगले की चाहत पलती रही और इस कारण बेईमानी की भी. लेकिन बेईमानी करने हेतु वांछित हिम्मत न होने के कारण अंदर ही अंदर कुंठा बढ़ती चली गयी.        हम ईमानदारी की दुहाई देकर बेईमानों को कोसते रहे और हमारी कुंठा, हीन-भावना बढ़ती रही.        हम बड़े उदार लोग हैं और वे कितने आतताई ! उनका आतंक बढ़ता जा रहा – इतना कि अब अपने अपने-आप को बचा पाना मुश्किल है. हमारा संस्कार, हमारा धर्म कितना उदार है. इसके बरक्स वे ? वे फैलते जा रहे हैं और हम सिकुड़ते जा रहे हैं.        उदारता की दुहाई देकर संकीर्णता को कोसते रहे और हमारी कुंठा बढ़ती रही.        असल में न तो हमारा ईमानदार होना सच था, न तो उनका बेईमान होना. न तो हमारी उदार...