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जोनाथन लिविंगस्टोन सीगल

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रिचर्ड बाख की एक अनोखी किताब है - जोनाथन लिविंगस्टोन सीगल ! 10,000 से भी कम शब्दों में सिमटी यह किताब उस समुद्री पक्षी की कहानी है जिसका उड़ना भोजनमात्र की खोज नहीं है. वह उड़ता है आसमान को छूने के लिए, आसमान से भी पार जाने के लिए. अपने खफ़ा हुए तो क्या, जमात से अपमानित कर बाहर निकाल दिए गए तो क्या, नितांत तन्हा रह गए तो क्या – लेकिन इस परवाज का मकसद भोजन की तलाश मात्र नहीं हो सकता. -----------------------        सुबह हो गई है, सूरज की किरनें समंदर पर एक अनोखी छटा बिखेर रही हैं. मछुआरों की नाव समंदर किनारे लग गई हैं और इसी के साथ हजारों की संख्या में ‘ सीगल’ भोजन की तलाश में झुण्ड बना कर इधर – उधर उड़ रहे है – बस खाने को कुछ मिल जाए. कुछ भी हो - मछली हो या केकड़ा.        तभी एक सीगल शिशु आसमान से तट पर गिरता है और उसकी माँ चीखती है –        “जॉन ! जॉन ! तुम कब सुधरोगे ? तुम्हारे साथ क्या परेशानी है, बताओ. तुम्हें बाकी सीगल बच्चों की तरह आराम से रहने में क्या दिक्कत होती है. हर घड़ी हवा मे...

भीड़-भारत # 2

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कुछ दिनों पहले ही लोगों  की भीड़ जोर से गरजी थी कि वह बदल रहा है. वह जानता है कि उसकी उमर कुछ ज्यादा ही हो चली है , वह यह भी जानता है कि लोग उसे लेकर तरह-तरह की बातें करते हैं या कहें तो उसे कई तरीके से देखते हैं. कभी-कभी सोचता है कि उसकी उमर शायद कुछ ज्यादा ही हो गई है , इसीलिए उसे ठीक-ठीक याद नहीं रहता कि असल में वह कैसा है , असल में वह कौन है. वैसे वह जैसे ही ठहर कर शांत चित्त कुछ याद करने की कोशिश करता है , जोर-जोर कोई चिल्लाने लगता है कि वह बदल रहा है. इतना तो वह जानता है कि वह बदल रहा है क्योंकि बदलना ही सबसे बड़ा सत्य है. पल प्रतिपल हर कोई बदल रहा है , धरती बदल रही है , आसमान बदल रहा है. बदलना ही नियति है , लेकिन उसके साथ ऐसा क्या हो रहा है कि हर घड़ी कोई न कोई चिल्लाने लगता है कि वह बदल रहा है. इतनी रात जबकि अँधेरा गहरा गया है उसके घर के आगे लोग फिर से चिल्लाने लगे हैं.        यद्यपि चिल्लाते हुए लोग फुसफुसाते भी हैं और उनकी फुसफुसाहट वह सुन सकता है. ‘ मार साले को , साला बुढ्ढा , भोंस... के , मादर ....... , साले का घर ही जला डाल ’ ...

भीड़-भारत

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गुज़रे महीने यूरोप यात्रा के दौरान एक दिन हमनें गौर किया कि चिकनी सड़कों के दोनों ओर करीने से सजे हुए खुबसूरत भवन तो हैं लेकिन लोग कहाँ हैं. चलती हुई गाड़ी से बड़ी मुश्किल से एक या दो महिला-पुरुष के दिखने पर हममें से कोई अनायास ही बोल पड़ता – “दिखे !!” इसके बरक्स हमारे यहाँ हर ओर लोगों का जत्था , लोगों की भीड़. भीड़-भाड़ में भारत बसता है. भीड़-भाड़ में भारत बसता रहा है. इस भीड़ में एक व्यक्ति भी होता है - एक व्यक्ति जिसकी अपनी निजता होती है , अपना परिचय और जो अपने कृत्यों के लिए जवाबदेह होता है. तो जब तक किसी व्यक्ति की पहचान बची रहती है और भरी भीड़ में वह अपनी अलग राय रखने व व्यक्त करने में सक्षम हो तब तक उम्मीद बची रहती है. चिंता इसी बात की है कि बदले दौर में यह उम्मीद समाप्त होती जा रही है. देखने में यह एक व्यक्ति , अकेला बड़ा कमजोर मालूम पड़ता है लेकिन मजेदार पहलू है कि व्यक्ति के अकेले होने मात्र से , उसकी निजता से , उसके अलग अस्तित्व के ख्याल मात्र से राजाओं , तानाशाहों , धर्म-गुरुओं की नींद उड़ने लगती है. इसलिये राजाओं , धर्म , समाज (व परिवार भी) के ठेकेदारों की पूरी कोशिश रह...

दो कवितायें - (1) प्रवास उस प्रदेश में और (2) माँग सजाई है.

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दो कवितायें      प्रवास उस प्रदेश में   बगैर किसी स्मृति के    एक किरदार निभा गए यात्री की    नहीं थी, परन्तु, यात्रा    था सिर्फ अमेय भटकाव.    जीवन भी एक भटकाव    नहीं, परन्तु, यात्रा    सहसा हो जाती है एक दुर्घटना    और सामने होती हो “तुम”    विलसित नहीं   आटा गूँथती, परन्तु.                                  ***************************************          माँग सजाई है.  कोरे कागज पर अनायास ही उगते हैं कुछ शब्द जिनका कोई अर्थ नहीं विशेष फिर भी वे कहते हैं यह अलका के लिए है. और जब खिंच जाती हैं कुछ लकीरें और बिन्दु एक गोले में सुनता हूँ मैं चिर कुंवारी अलका ने माँग सजाई है.  ************

सॉलिड साथी

स्कूलों में गरमी की छुट्टियाँ हो गई हैं. अब गरमी की छुट्टी में शहर के बच्चे अपने पेरेंट्स के साथ कहीं और निकल पड़ते हैं , पहले बच्चे गाँव जाते थे. जैसे भी हुआ हो लेकिन सच यही है कि इस ग्लोबल धरती के मानचित्र में भले ही गाँव दिखते हों , गाँव बहुत दूर चले गए हैं – हमारी सोच से , हमारी संवेदनाओं से , हमारी दृष्टि से.   टीकाचक में भी पहले गरमी व सर्दी की छुट्टियों में बड़ी गहमा-गहमी रहती थी. अब सन्नाटा पसरा रहता है. बगीचा मृत्युशय्या पर लेटा है , उसके पेड़ एक-एक कर अदृश्य हो चुके हैं और तालाब , जिसमें बच्चे घंटों डुबकी लगाते ही रहते थे और निकलने का नाम नहीं लेते थे , पट चुका है. वह भी पांचवी कक्षा तक नियमित रूप से हर गरमी की छुट्टी में टीकाचक जाता रहा था. कहने का मतलब वह अंतिम बार फिफ्थ क्लास की गरमी की छुट्टी में टीकाचक गया था. सुबह उठकर वह सीधे बगीचे पहुँचता और बम्बईया आम के टपकने का इंतज़ार करता. बम्बईया आम के इंतज़ार में उसके साथ कई और भी रहते थे - कुछ उसकी तरह छुट्टियों में शहर से गाँव आने वाले शहरी बच्चे थे लेकिन बहुतायत में टीकाचक के मूल बारहमासी बासिंदे ही होते थे. क...

मैं पहुँची नहीं, आई हूँ !

सालों बाद वह टीकाचक में दिखी. लोगों ने कहा – ‘ आखिर तुम पहुँच ही गईं. ’ अलका मुस्कराई – ‘ नहीं , मैं पहुँची नहीं , आई हूँ. ’ लोगों को कुछ समझ में नहीं आया , उन्होंने ताने मारे – ‘ तुम सीधी बात क्यों नहीं करतीं और निर्लज्जता की हद तो देखो जरा – जब मातम मनाना चाहिये यह बेशर्म चहक रही है. ’ वह फिर मुस्कराई लेकिन कुछ कहा नहीं और अपने घर की ओर मुड़ गई. वह घर का ताला खोल रही थी , दुनिया अपनी खीज उतार रही थी – ‘ किस्मत के मारों को कौन समझाये – रानी के ठाठ थे इसके , नौकर-चाकर , गाड़ी-बंगला सब छोड़-छाड़ यह करमजली फिर से अपनी झोपड़ी वापस आ गई. ’ लोगों की भीड़ में तमाम ऐसे भी थे जो उससे सहानुभूति रखते थे – ‘ बेचारी , हे भगवान ऐसा किसी के साथ न हो. बेचारी की कोई मजबूरी रही होगी ; नहीं तो वैभव व समृद्धि कौन छोड़ना चाहेगा. ’ टीकाचक में , लोगों की भीड़ में मैं भी था – ‘ ब्लैंक ’ सा , भाव-शून्य लेकिन अलका बड़ी आकर्षक लग रही थी , एक अबूझ आभा से भरी हुई. मैं अभिभूत सा उसे निहार रहा था , ठीक उसी तरह जब गुजरे इतवार हिंदी साहित्य का एक अनोखा सितारा निजी बातचीत में कह रहा था – जमीन पर सोता हूँ ...

धर्म की राह पर...

वह लिखता था. उसने लिखा – “घर से मस्जिद है बहुत दूर , चलो यूं कर लें किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाय.” यह कुफ्र था. यह दीन के खिलाफ़ था. कैसी वाहियात बात लिखी उसने – हे ईश्वर ! उसे माफ़ मत करना , उसका इलाज करना ! माना वह लिखता था लेकिन क्या कोई कुछ भी लिख सकता है. कोई अपनी कलम से ईश्वर की अवमानना करने की जुर्रत कैसे कर सकता है. क्या किसी कलमकार अथवा लिखने वाले को मालूम नहीं कि मंदिर हो या मस्जिद – उसमें ईश्वर वास करता है. इसलिये मंदिर जाने से इतर कोई और पवित्र काम हो सकता है  भला ! मंदिर में जो भी होता है , वह पवित्र होता है – पुण्य का कार्य होता है. और ईश्वर के भक्त के लिए कोई मंदिर दूर कैसे हो सकता है, भला ! इसलिये अब हम दीन के हिसाब से चलते हैं. अब हम पूजा-अर्चना करते हैं और बच्चे ?? बच्चे तो रोते ही रहते हैं , उन्होंने रोने के लिए जन्म लिया है. ऐसे में उन्हें हंसाना भला कौन सा पवित्र काम है. अब हमनें कुछ और यात्रा कर ली है. अब तक हम बच्चों को रोते हुए छोड़ आगे तीर्थ यात्रा पर निकल जाया करते थे लेकिन अब हम उनके साथ कुछ भी कर सकते हैं – कुछ भी ! इस कुछ भी करने का कारण भी ब...