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मैं पहुँची नहीं, आई हूँ !

सालों बाद वह टीकाचक में दिखी. लोगों ने कहा – ‘ आखिर तुम पहुँच ही गईं. ’ अलका मुस्कराई – ‘ नहीं , मैं पहुँची नहीं , आई हूँ. ’ लोगों को कुछ समझ में नहीं आया , उन्होंने ताने मारे – ‘ तुम सीधी बात क्यों नहीं करतीं और निर्लज्जता की हद तो देखो जरा – जब मातम मनाना चाहिये यह बेशर्म चहक रही है. ’ वह फिर मुस्कराई लेकिन कुछ कहा नहीं और अपने घर की ओर मुड़ गई. वह घर का ताला खोल रही थी , दुनिया अपनी खीज उतार रही थी – ‘ किस्मत के मारों को कौन समझाये – रानी के ठाठ थे इसके , नौकर-चाकर , गाड़ी-बंगला सब छोड़-छाड़ यह करमजली फिर से अपनी झोपड़ी वापस आ गई. ’ लोगों की भीड़ में तमाम ऐसे भी थे जो उससे सहानुभूति रखते थे – ‘ बेचारी , हे भगवान ऐसा किसी के साथ न हो. बेचारी की कोई मजबूरी रही होगी ; नहीं तो वैभव व समृद्धि कौन छोड़ना चाहेगा. ’ टीकाचक में , लोगों की भीड़ में मैं भी था – ‘ ब्लैंक ’ सा , भाव-शून्य लेकिन अलका बड़ी आकर्षक लग रही थी , एक अबूझ आभा से भरी हुई. मैं अभिभूत सा उसे निहार रहा था , ठीक उसी तरह जब गुजरे इतवार हिंदी साहित्य का एक अनोखा सितारा निजी बातचीत में कह रहा था – जमीन पर सोता हूँ ...

धर्म की राह पर...

वह लिखता था. उसने लिखा – “घर से मस्जिद है बहुत दूर , चलो यूं कर लें किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाय.” यह कुफ्र था. यह दीन के खिलाफ़ था. कैसी वाहियात बात लिखी उसने – हे ईश्वर ! उसे माफ़ मत करना , उसका इलाज करना ! माना वह लिखता था लेकिन क्या कोई कुछ भी लिख सकता है. कोई अपनी कलम से ईश्वर की अवमानना करने की जुर्रत कैसे कर सकता है. क्या किसी कलमकार अथवा लिखने वाले को मालूम नहीं कि मंदिर हो या मस्जिद – उसमें ईश्वर वास करता है. इसलिये मंदिर जाने से इतर कोई और पवित्र काम हो सकता है  भला ! मंदिर में जो भी होता है , वह पवित्र होता है – पुण्य का कार्य होता है. और ईश्वर के भक्त के लिए कोई मंदिर दूर कैसे हो सकता है, भला ! इसलिये अब हम दीन के हिसाब से चलते हैं. अब हम पूजा-अर्चना करते हैं और बच्चे ?? बच्चे तो रोते ही रहते हैं , उन्होंने रोने के लिए जन्म लिया है. ऐसे में उन्हें हंसाना भला कौन सा पवित्र काम है. अब हमनें कुछ और यात्रा कर ली है. अब तक हम बच्चों को रोते हुए छोड़ आगे तीर्थ यात्रा पर निकल जाया करते थे लेकिन अब हम उनके साथ कुछ भी कर सकते हैं – कुछ भी ! इस कुछ भी करने का कारण भी ब...

मैं लीद नहीं करता !

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मैं जा रही हूँ – उसने कहा जाओ – मैंने उत्तर दिया यह जानते हुए कि जाना हिंदी की सबसे खौफ़नाक क्रिया है .        केदारनाथ सिंह के जाने के बाद उनकी ‘जीरे’ जैसी यह कविता लोगों के जुबान पर अनायास ही चली आयी. दूधनाथ सिंह के जाने की खौफ़नाक क्रिया के सदमे से हिंदी जगत उबरा भी नहीं था कि केदारनाथ सिंह ने भी जाने का फैसला कर लिया. अभी तो हम दूधनाथ सिंह को याद करते हुए भुवनेश्वर को पढ़ ही रहे थे , जिनके जीवन भर की कुल रचनाएं किसी के केवल एक उपन्यास की मोटाई का महज तीसरा या चौथा हिस्सा होगा; जिनकी कुल बारह कहानियाँ हैं – और इन बारह कहानियों की कुल लम्बाई-चौड़ाई व मोटाई आज के कथाकार की एक कहानी की चौथाई मात्र है. वैसे भी यह प्रलापों का दौर है, इसीलिए भुवनेश्वर को जानना-पढ़ना अधिक आवश्यक है. अपने सम्पादन में ‘भुवनेश्वर समग्र’ नाम से प्रकशित किताब में भुवनेश्वर की रचनाओं को प्रस्तुत करते हुए दूधनाथ सिंह की पहली पंक्ति है – “भुवनेश्वर प्रेमचंद की खोज हैं.” प्रेमचंद का यह खोज जीनियस था; प्रेमचंद के दूसरे जीनियस थे – जैनेन्द्र कुमार.     ...

वे ख़ास हैं - नारों में व 8 मार्च को...

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सुबह-सुबह आपकी नींद खुले और आप पायें कि कोई गुलाब का फूल हाथ में लेकर आपके जागने का इंतज़ार कर रहा है तो आपको निःसंदेह अच्छा लगेगा. इसके ऊपर वह यदि यह बताये कि वह आपके लिए ऐसा इसलिये कर रहा है क्योंकि आप बेहद ख़ास हैं ; आप अद्भुत हैं , आप अनोखे हैं – तो आपको और अच्छा लगेगा. आप अभिभूत हो उठेंगे. ऐसा होना लाज़िमी है, स्वाभाविक है और आपके साथ यदि ऐसा रोज होने लगे और आपके साथ यह व्यवहार कई लोग करने लगें तो निःसंदेह आपको यकीन हो चलेगा कि आप कुछ ख़ास हैं. फिर ख़ास हो जाने के बाद किसी दिन आप सड़क पर खड़े हो किसी के साथ किसी बात पर जोर से ठहाके लगाने के पश्चात जब अपनी दुनिया में वापस लौटें और आपको ख़ास कहने वाले लोग यह कहें कि आज सड़क पर आपने अपनी मर्यादा के अनुरूप व्यवहार नहीं किया क्योंकि ख़ास लोग इस तरह सरे राह लापरवाही से ठहाके नहीं लगाया करते. इस तरह से ठहाका लगाना छोटे लोगों का काम है. यकीन जानिये अब आप पर जादू चलना आरंभ हो चुका है – अब आप सरे राह खुलकर ठहाके नहीं लगा पायेंगे क्योंकि आपको अच्छा लगता है जब लोग आपको ख़ास कहते हैं. अब आप किसी भी हालत में ख़ास होने के इस ख़िताब को खोना नहीं चाहेंग...

रेड कारपेट वेलकम

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बीते दिनों वे लखनऊ की धरती पर उतरे थे और हमनें उनके लिए लाल कालीन बिछाया था. पूरे शहर को सजाया था. इस सजावट के लिये उपमा भी भक्ति वाली ही होनी चाहिये. इसीलिए एक प्रमुख अख़बार ने मूड सेट करने के लिए लिखा –        “जैसे कभी राम के लिए अयोध्या सजी थी , योगी सरकार ने निवेशकों के लिए लखनऊ को भी उसी तरह सतरंगी चुनरिया उढ़ा दी है.”        उधर सरकार के प्रतिनिधि चहक रहे थे – “लखनऊ नहीं देखा तो इंडिया नहीं देखा...”        बिल्कुल, यहाँ कोई गरीब नहीं दिखा , कोई दुखिया नहीं दिखा; राम राज्य की तरह. आपको मालूम होना चाहिये राम राज्य में कोई दुखिया नहीं था !! कोई रोता नहीं था. हाल के सालों में ‘न्यू इंडिया ’ में भी कोई दुखिया नहीं, कोई रोता नहीं सिवाय इक्के-दुक्के सिरफिरे अ-भक्तों के. वैसे ये अ-भक्त नहीं, कु-भक्त हैं और सही कहें तो इनके लिए भक्त शब्द का इस्तेमाल ही ठीक नहीं, असल में ये द्रोही हैं- विकासद्रोही , देशद्रोही , समाजद्रोही , धर्मद्रोही आदि आदि. निगेटिविटी फैला रहे ये सिरफिरे लोग अखबार भी...

‘9 नवंबर’ में महात्मा गाँधी

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पिछले हफ्ते महात्मा गाँधी व व उनके बड़े बेटे हरिलाल का जिक्र निकला था. हम किसी भी मसले पर तत्क्षण ‘ फाइनल जजमेंट ’ देने लगते है. आसान है ऐसा करना लेकिन यह भी सच है कि हम महात्मा गाँधी को जितना अधिक जानने का प्रयास करते हैं , उतना ही अधिक पता चलता है कि हम कितना कम जानते हैं. फिर किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुँचने की इतनी जल्दी क्यों ,  यात्रा का थोड़ा आनंद तो लिया जा सकता है. उपन्यास ‘ 9 नवंबर ’ में महात्मा गाँधी के बैद्यनाथ धाम देवघर आने का जिक्र आता है. उस अंश को फिर से पढ़ते हैं....   रह – रह कर उचटती नींद के बीच शेखर के दिन किसी तरह कट रहे थे कि ‘ निश्चय ’ में प्रकांड विद्वान पंडित श्री हरि शंकर चौबे के पांव पड़े – “शेखर बेटा ! ब्राह्मणों और अगड़ों के लिए आज दोहरी परीक्षा है. एक ओर मुसलमानों के अनवरत तुष्टिकरण से सनातन धर्म पर खतरा बढ़ता जा रहा है तो दूसरी ओर सरकार दिनों – दिन अछूतों का दिमाग बिगाड़ती जा रही है. हमें अपने अस्तित्व की लड़ाई स्वयं लड़नी है, लेकिन इसमें सबसे बड़ा अवरोध हमारे ही अंदर है. सवर्ण – ब्राह्मण आदि ही जो कांग्रेसी रहे हैं या कांग्रेसियों क...

बा ! संतरा केवल आप ही खाइयेगा !

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बागडोगरा के लिए उड़ान भरने वाली फ्लाइट के इंतजार में कोलकाता एअरपोर्ट पर बैठा हूँ. कल रविवार है और टीकाचक के लिए कुछ लिख नहीं पाया हूँ. कौन पढ़ रहा है , मालूम नहीं लेकिन खूब लिखा जा रहा है ; कौन सुन रहा है – पता नहीं लेकिन लोग बोल रहे हैं. बहुत बोल रहे हैं और न जाने क्या-क्या बोल दे रहे हैं. तो बहुत लिखने व बहुत बोलने के दौर में बगैर कुछ बोले , चुपचाप – बस पढ़ने का मन हो रहा है. तो फिर से एकबार पढ़ रहा हूँ उसके बारे में जिसके बारे में खूब लिखा गया है और आज भी लिखा जा रहा है. भारत वापसी के बाद वह पूरे देश की ख़ाक छान रहा था – मुँह बंद किये लेकिन आँख व कान खोले हुए. ऐसे में उसे बनारस में हिन्दू कॉलेज (जो आगे चल कर बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी कहलाया) के उद्घाटन समारोह में बोलने के लिए बुलाया गया. जिसमें वायसराय समेत कई राजा-महाराजा शामिल थे. राजा-महाराजाओं ने इस कॉलेज के निर्माण में भारी चंदा दिया था , इसलिये इस समारोह में उन्हें वीवीआईपी ट्रीटमेंट मिलना बिल्कुल स्वाभाविक था. वैसे भी वे थे तो राजा-महाराजा ही न - सोने-हीरे के आभूषणों से लदे हुए. महिमामंडन के उस समारोह में साधारण से दिखने ...