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सलीब पर टंगे सवाल -- प्रताप दीक्षित

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(वरिष्ठ कथाकार प्रताप दीक्षित की नजर में ‘बेतरतीब पन्ने ’ . ‘सलीब पर टंगे सवाल ’ नाम से लिखी यह समीक्षा 'पाखी' के मार्च 2020 अंक में व जनसंदेश टाइम्स में 15 दिसंबर 2019 को छप चुकी है.) उपन्यास समाज, जीवन-जगत के प्रकट-अप्रकट रूपों, अंतरसंबंधों, वैविध्य, सपनों, सरोकारों-चिंताओं का प्रतिबिम्ब होता है। यह साहित्य की एक विधा मात्र नही जीवन को समय और समाज के सन्दर्भ में देखने-परखने की दृष्टि है। हेनरी जेम्स (द आर्ट ऑफ फिक्शन) ने उपन्यास के लिए ‘सत्य के वातावरण’ को अनिवार्य तत्व माना है। पात्र, घटनाएं सत्य को किस रूप में प्रस्तुत करती हैं,यह गौण है। महत्वपूर्ण होती है लेखक की समय की विडंबनाओं को देखने-परखने की अंतर्दृष्टि।     ‘9 नवंबर ’ के बाद संजय चौबे का यह उपन्यास ‘बेतरतीब पन्ने’ प्रमाणित करता है कि लेखक अपने देश-काल की चिंताओं के प्रति सजग रचनाकार है। वर्तमान सामाजिक , राजनीतिक , सांस्कृतिक विडंबनाओं ने आमजन को कई स्तरों पर विभाजित किया है। एक ओर अभाव , जाति , संप्रदाय , नस्ल के आधार पर विषमता , विस्थापन की दारुण पीड़ा से गुजरता जनसमूह , दूसरी ओर अत...

झूठइ लेना झूठइ देना / झूठइ भोजन झूठ चबेना//

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वह दिखता नहीं है. न दिखने के बावजूद वह है और उसके होने मात्र की आशंका हमें डरा रही है. उसे देख पाने के लिए तकनीक की , यंत्र की , समझ की जरूरत पड़ती है. हमारे साथ होता रहता है यह सब कि होने के बावजूद हमें नहीं दिख पाता क्योंकि हममें देख पाने के लिए आवश्यक क्षमता का विकास नहीं होता. नंगी आंखों से नहीं दिखने वाले अतिसूक्ष्म जीव या कि विषाणु से बचने हेतु जब हमनें अपने-आपको कैद करने का फैसला किया , लक्ष्मणरेखा न लाँघने की कसमें ली , तो शुरुआती दिनों में ऐसा लगा कि हम कुछ-कुछ सोचने-विचारने लगे हैं. ' इबादतगाह में सन्नाटा ' लिखते समय यह आशा थी कि खाली बैठा हुआ इंसान अपने अंदर एक तार्किक दृष्टि विकसित करने की कोशिश करेगा क्योंकि शीघ्र ही सोशल डिस्टेंसिंग का सच हमें दिखा था , जब न्यू इंडिया के हाईवे पर हजारों-लाखों बेबस भारतवासी अपने पूरे परिवार के साथ निकल पड़े थे. हम विचलित होने लगे थे कि यह इंडिया और भारत के बीच का डिस्टेंस है. हमने स्वीकारा यह डिस्टेंस ठीक नहीं है , हमें दूरी पाटने की कोशिश करनी चाहिए. हमने महसूस करना शुरू किया कि सोशल डिस्टेंसिंग हमारे सामाजिक जीवन का बेहद क...