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विरोधी होना अपराधी होना नहीं है !

विरोधी होना अपराधी होना नहीं है. नि:संदेह समर्थन में बोलने वाले अच्छे लगते हैं और विरोध करने वाले अच्छे नहीं लगते. समझ कहती है ऐसा होना एक मानवीय कमजोरी है और हमें ऐसी प्रवृत्ति से बचना चाहिए. समझ कहती है , समर्थन व विरोध को तर्क की कसौटी पर कसते हुए विचार करते रहना. लेकिन जब विरोध करने वाले दुश्मन लगने लगें , अपराधी लगने लगें तो एक बर्बरता , एक मूढ़ता का जन्म होता है जो अंततः व्यक्तिगत स्तर पर व समाज के स्तर पर बड़ा घातक साबित होता है. हाँ में हाँ मिलाने की प्रवृत्ति के मुकाबले विरोध व सवाल करने की प्रवृत्ति के कारण ही इंसान अपनी यात्रा में कुछ बेहतर कर पाया है. इसके बरअक्स सवाल करने अथवा विरोध को बर्दाश्त न कर पाने की कमजोरी आदमी को हिंसक बनाती है , उसे बर्बर बनाती है. हमने धार्मिक मामलों में विरोध को पाप की श्रेणी में रखने की मूढ़ता की है और मानव जाति आज भी इस मूढ़ता के खतरनाक परिणाम झेलने के लिए अभिशप्त है. 21वीं सदी के न्यू इंडिया में सवाल करने वाले , विरोधियों के लिए नए-नए नाम गढ़े जा रहे हैं जो बेहद खतरनाक हैं व शर्मनाक भी. सवाल पूछने वाले , विरोध करने वालों को चुप करा देने की ब...

भीड़ भारत और विवेकानन्द # 1

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        (विवेकानन्द 1902 में धरती छोड़ गये. तब उनकी उम्र उनतालीस साल थी. कहते हैं इक्कीसवीं सदी के न्यू इंडिया में युवा वास करते हैं, युवाओं के बावजूद न्यू इंडिया भीड़-भारत कैसे बन जाता है. वह भगत सिंह व विवेकानन्द के नाम जपता है लेकिन जाप करने में जिस दुर्घटना की संभावना रहती है, वह न्यू इंडिया के साथ घटित होता है. जाप करने वाले मतलब नहीं जानते, जिनका नाम जपते रहते हैं उसे जानते तक नहीं. इसीलिए ‘टीकाचक’ के अगले कुछ अंकों में विवेकानन्द की बात !        बच्चों को धार्मिक रूप से संस्कारित करने की कोशिश व अपने इष्ट/मत/धर्म को लेकर की जाने वाली जिद पर विवेकानन्द के शब्द...)         इष्ट की परिकल्पना को ठीक-ठीक समझ लेने पर हम दुनिया के सभी धर्मों को समझ सकेंगे. ‘इष्ट’ शब्द ‘इष्’ धातु से बना है. ‘इष्’ का अर्थ है इच्छा करना , पसंद करना , चुनना.        एक ही विषय में बहुत से भेद-प्रभेद होंगे. अज्ञानी लोग इनमें से किसी एक प्रभेद को ले लेते हैं और उसी को अपना आधार बना लेते हैं , और विश्व की ...

जेएनयू और विष के दाँत

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       ‘न्यू इंडिया’ बनने के दौर में जेएनयू अनायास ही चर्चा के केंद्र में आ जाता है और इसके संबंध में तमाम अनर्गल बातें करते हुए हम अपनी महान सोच को व्यक्त करने लगते हैं. तमाम गलत चीजों से जोड़े जाने के बावजूद आज भी यह गिनती के उन चंद शिक्षण-संस्थानों में है जिसका उल्लेख भारत की सरकार अथवा भारतवासी विदेश में अथवा अपने विदेशी मित्रों से गर्व के साथ करते हैं कि हमारे पास भी एक विश्वस्तरीय संस्थान है. हालिया चर्चा जिस कारण से उपजी है , उसमें होना तो यह चाहिए था कि हर एक आम भारतीय जेएनयू के साथ खड़ा होता क्योंकि इस बहाने देशभर में शिक्षा के नाम पर चल रही लूट व शिक्षा क्षेत्र की दुर्दशा पर बड़े सवाल खड़े हो सकते थे. लेकिन हमेशा की तरह उसका ध्यान दूसरी ओर भटक ही गया.          देखते-देखते शिक्षा के सारे केंद्र - स्थानीय स्तर पर प्राइमरी स्कूल से लेकर उच्चतम पढ़ाई के संस्थान लाभ कमाने के केंद्र या कि लूट के अड्डे बन चुके हैं. यह सब हमारी आँखों के सामने घटित हुआ है. हम अपने गांव-शहर के सरकारी स्कूलों-कॉलेजों को तो बर्बाद होने से नहीं बचा पा...

गंगा-बीती

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आमतौर पर हाल में प्रकाशित किसी किताब पर लिखने से बचना चाहता हूं। इसका कारण है कि ऐसी किसी कृति पर कुछ लिखने अथवा बोलने मात्र को आलोचना अथवा समीक्षा समझा जाने लगता है और मेरे अंदर आलोचना अथवा समीक्षा हेतु वांछित योग्यता व साहस का सर्वथा अभाव है। यह कार्य मुझे बेहद कठिन लगता है और इरिटेटिंग भी। इसके बरक्स किसी रचना में डूबना, उतराना बड़ा आनंद देता है। साथ ही किसी रचनाकार की पंक्तियों को अपनी सुविधा के अनुसार उद्धृत करना भी अच्छा लगता है। यद्यपि अपनी सुविधा के अनुसार किन्हीं पंक्तियों का अर्थ अथवा भाव बदलना बदतमीजी व बेशर्मी की श्रेणी में आ सकता है, जाने-अनजाने यह गुस्ताखी हो जाती है। पाठकीय स्वतंत्रता के नाम पर ऐसी गुस्ताखियों को माफी मिल सकती है। लेकिन यह माफी संभवत आलोचकों/समीक्षकों के लिए उपलब्ध नहीं होती - कहते हैं उनके अंदर संवेदनात्मक ज्ञान का एक न्यूनतम स्वीकार्य स्तर तो होना ही चाहिए। और पाठक !! वह पूर्णतः स्वतंत्र है, उसकी कोई बाध्यता नहीं, कोई न्यूनतम अहर्ता, कोई बंदिश नहीं; अनुशासन भी नहीं। इसीलिए पाठकीय स्वतंत्रता (या कि स्वच्छंदता - पूर्णतः अनुशासनहीन) की मस्ती के साथ किताब...

नचिकेता से डरता समाज

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        यजुर्वेद की दो शाखाओं में से एक है – कृष्ण यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद की कठशाखा से कठोपनिषद् निकलता है. मात्र दो अध्यायों और 118 श्लोकों में सिमटे कठोपनिषद् का विस्तार बहुत बड़ा है; उसके कई श्लोक हूबहू भगवान श्रीकृष्ण की जुबानी श्रीमद्भगवद्गीता में उतरते हैं. लेकिन कठोपनिषद् अप्रतिम बनता है – नचिकेता के कारण.        नचिकेता की कथा कमोबेश हमें मालूम है. मालूम होने के बावजूद हम नचिकेता की चर्चा करने से बचते है; उसका उल्लेख नहीं किया करते हैं. कारण स्पष्ट है, नचिकेता का जिक्र जोखिम भरा है; हमारी समझ नचिकेता से डरती है. हमारे संस्कार , हमारा लोकाचार , हमारी मर्यादा सब नचिकेता की संभावना मात्र से दरकने लगते हैं. किस्से-कहानी , मिथकों , भाषणों आदि तक तो ठीक है , लेकिन नचिकेता जैसा बालक सचमुच हमारे सामने खड़ा हो जाए तो...        कथा बड़ी प्यारी है. वाजश्रवा अपनी दयालुता व दान के कारण प्रसिद्ध है. वाजश्रवा नाम ही काफी है. कठोपनिषद् के शंकर भाष्य का एक श्लोक है – “वाजमन्नं तद्दानादिनिमित...

भगत सिंह को जानते हैं ? भाग-3

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       कहने की जरुरत नहीं कि लोगों को भगत सिंह का नाम आकर्षित करता है. पिछले रविवार को टीकाचक में भगत सिंह की बात निकलने पर कई साथियों की प्रतिक्रिया आयी कि वे भगत सिंह के बारे में व उनके लेखन को पढ़ना चाहते हैं. कुलदीप नैयर द्वारा लिखित भगत सिंह की जीवनी पढ़ी जा सकती है. 223 पृष्ठों में सिमटी यह जीवनी ‘सरफरोशी की तमन्ना’ नाम से राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित है. इसमें भगत सिंह के दो महत्वपूर्ण लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ ?’ और ‘बम का दर्शन’ भी शामिल है. इसके अतिरिक्त आधार प्रकाशन , पंचकूला ने ‘भगत सिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज ’ नाम से भगत सिंह का समग्र लेखन प्रकाशित किया है. चमन लाल के संपादन में प्रकशित यह किताब 478 पृष्ठों की है और इसकी भूमिका भगत सिंह के छोटे भाई कुलतार सिंह ने लिखी है.        पढ़ना कम हुआ है और आज का भीड़-भारत किताबों की जगह अपनी धारणाओं को पुष्ट करने हेतु ‘प्रॉपगंडा सामग्री ’ को तरजीह देने में लगा है.  फिर भी सच जानने की भूख बनी रहती है. ऐसे में  किताबों के अतिरिक्त कोई और उम्मीद नहीं. इसलिए ...

भगत सिंह को जानते हैं ? भाग-2

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       23 मार्च 1931 को महज तेईस साल की उमर में भगत सिंह को फाँसी दी गयी थी. बीते तेईस मार्च को उनकी शहादत के अट्ठासी साल गुजर गए. साथ ही इक्कीसवी सदी में जन्में कई करोड़ बच्चे बालीग होकर इस वर्ष भारत की नयी सरकार के गठन की प्रक्रिया में हिस्सा लेने जा रहे हैं – वे पहली बार मतदान करने जा रहे हैं. ऐसे में अनायास ही भगत सिंह का ख्याल आ रहा है. हम सभी भगत सिंह का नाम जानते हैं और बार-बार उनका नाम दुहराते रहते हैं. ‘नाम जानते हैं ’ का सीधा मतलब है कि हम केवल नाम ही जानते हैं और बार-बार नाम दुहराये जाने के कारण ऐसा भ्रम हो जाता है कि हम भगत सिंह को जानते हैं.        औपचारिक रूप से शिक्षित लोगों के बीच का एक अनौपचारिक सर्वे कि वे भगत सिंह को कितना जानते हैं, बड़ा मजेदार रहा. यहाँ उल्लेखनीय है कि ये वे लोग थे जो हर बात पर उनकी दुहाई देते रहते कि ‘भगत सिंह के आदर्शों को भुला दिया गया , नहीं तो भारत एक अलग ही देश होता.’ उस सर्वे में शामिल लोगों की प्रतिक्रिया का एक नमूना है –        ‘वे पंजाबी थे / क्रांतिकारी...

सराय

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सूफी फकीर हुआ, इब्राहीम. पहले वह एक सम्राट था. एक रात उसने देखा कि, सोया अपने महल में, कोई छप्पर पर चल रहा है. उसने पूछा :        ‘कौन बदतमीज आधी रात को छप्पर पर चल रहा है ? कौन है तू ?’        उसने कहा : ‘बदतमीज नहीं हूं, मेरा ऊंट खो गया है. उसे खोज रहा हूं.’        इब्राहीम को हंसी आ गई. उसने कहा : पागल ! तू पागल है ! ऊंट कहीं छप्परों पर मिलते हैं अगर खो जाएं ? यह भी तो सोच कि ऊंट छप्पर पर पहुंचेगा कैसे ?’        ऊपर से आवाज आई : ‘इसके पहले कि दूसरों को बदतमीज़ और पागल कह , अपने बाबत सोच. धन में, वैभव में, सुरा-संगीत में सुख मिलता है ? अगर धन में, वैभव में, सुरा-संगीत में सुख मिल सकता है तो ऊँट भी छप्परों पर मिल सकते हैं.’        इब्राहीम चौंका. आधी रात थी, वह उठा, भागा. उसने आदमी दौड़ाए कि पकड़ो इस आदमी को. लेकिन तब तक वह आदमी निकल गया. इब्राहीम ने आदमी छुड़वा रखे राजधानी में कि पता लगाओ कौन आदमी था. क्या बात कही ? किस ...