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दो कवितायें - (1) प्रवास उस प्रदेश में और (2) माँग सजाई है.

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दो कवितायें      प्रवास उस प्रदेश में   बगैर किसी स्मृति के    एक किरदार निभा गए यात्री की    नहीं थी, परन्तु, यात्रा    था सिर्फ अमेय भटकाव.    जीवन भी एक भटकाव    नहीं, परन्तु, यात्रा    सहसा हो जाती है एक दुर्घटना    और सामने होती हो “तुम”    विलसित नहीं   आटा गूँथती, परन्तु.                                  ***************************************          माँग सजाई है.  कोरे कागज पर अनायास ही उगते हैं कुछ शब्द जिनका कोई अर्थ नहीं विशेष फिर भी वे कहते हैं यह अलका के लिए है. और जब खिंच जाती हैं कुछ लकीरें और बिन्दु एक गोले में सुनता हूँ मैं चिर कुंवारी अलका ने माँग सजाई है.  ************

सॉलिड साथी

स्कूलों में गरमी की छुट्टियाँ हो गई हैं. अब गरमी की छुट्टी में शहर के बच्चे अपने पेरेंट्स के साथ कहीं और निकल पड़ते हैं , पहले बच्चे गाँव जाते थे. जैसे भी हुआ हो लेकिन सच यही है कि इस ग्लोबल धरती के मानचित्र में भले ही गाँव दिखते हों , गाँव बहुत दूर चले गए हैं – हमारी सोच से , हमारी संवेदनाओं से , हमारी दृष्टि से.   टीकाचक में भी पहले गरमी व सर्दी की छुट्टियों में बड़ी गहमा-गहमी रहती थी. अब सन्नाटा पसरा रहता है. बगीचा मृत्युशय्या पर लेटा है , उसके पेड़ एक-एक कर अदृश्य हो चुके हैं और तालाब , जिसमें बच्चे घंटों डुबकी लगाते ही रहते थे और निकलने का नाम नहीं लेते थे , पट चुका है. वह भी पांचवी कक्षा तक नियमित रूप से हर गरमी की छुट्टी में टीकाचक जाता रहा था. कहने का मतलब वह अंतिम बार फिफ्थ क्लास की गरमी की छुट्टी में टीकाचक गया था. सुबह उठकर वह सीधे बगीचे पहुँचता और बम्बईया आम के टपकने का इंतज़ार करता. बम्बईया आम के इंतज़ार में उसके साथ कई और भी रहते थे - कुछ उसकी तरह छुट्टियों में शहर से गाँव आने वाले शहरी बच्चे थे लेकिन बहुतायत में टीकाचक के मूल बारहमासी बासिंदे ही होते थे. क...

मैं पहुँची नहीं, आई हूँ !

सालों बाद वह टीकाचक में दिखी. लोगों ने कहा – ‘ आखिर तुम पहुँच ही गईं. ’ अलका मुस्कराई – ‘ नहीं , मैं पहुँची नहीं , आई हूँ. ’ लोगों को कुछ समझ में नहीं आया , उन्होंने ताने मारे – ‘ तुम सीधी बात क्यों नहीं करतीं और निर्लज्जता की हद तो देखो जरा – जब मातम मनाना चाहिये यह बेशर्म चहक रही है. ’ वह फिर मुस्कराई लेकिन कुछ कहा नहीं और अपने घर की ओर मुड़ गई. वह घर का ताला खोल रही थी , दुनिया अपनी खीज उतार रही थी – ‘ किस्मत के मारों को कौन समझाये – रानी के ठाठ थे इसके , नौकर-चाकर , गाड़ी-बंगला सब छोड़-छाड़ यह करमजली फिर से अपनी झोपड़ी वापस आ गई. ’ लोगों की भीड़ में तमाम ऐसे भी थे जो उससे सहानुभूति रखते थे – ‘ बेचारी , हे भगवान ऐसा किसी के साथ न हो. बेचारी की कोई मजबूरी रही होगी ; नहीं तो वैभव व समृद्धि कौन छोड़ना चाहेगा. ’ टीकाचक में , लोगों की भीड़ में मैं भी था – ‘ ब्लैंक ’ सा , भाव-शून्य लेकिन अलका बड़ी आकर्षक लग रही थी , एक अबूझ आभा से भरी हुई. मैं अभिभूत सा उसे निहार रहा था , ठीक उसी तरह जब गुजरे इतवार हिंदी साहित्य का एक अनोखा सितारा निजी बातचीत में कह रहा था – जमीन पर सोता हूँ ...