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जनवरी, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

चमकते भारत में दुखिया का दुःख !??

भारत चमक रहा है , भारत दमक रहा है. इस चमकते-दमकते भारत ने दावोस में भी अपना झंडा गाड़ा , जहाँ पृथ्वी ग्रह के सबसे बड़े लोग – सर्वाधिक शक्तिशाली लोग , सर्वाधिक धनी लोग एकत्रित थे. बीते दिनों हमनें प्रकृति की अनुपम छटा बिखेरती , चित्त को शांत करने वाली सफेदी देखी. स्विस स्काई रेसॉर्ट , दावोस में चमकते भारत के चेहरे दिखे. वहां भारत के मेहनती लोग थे , जिन्होंने अपनी मेहनत से दुनियाभर में भारत का नाम रोशन किया था – वहां मुकेश अंबानी थे. वहाँ राहुल बजाज , सुनील मित्तल , सज्जन जिंदल , नरेश गोयल , आनंद महिंद्रा , उदय कोटक , चंदा कोचर , रवि रुइआ , एन चंद्रशेखरन समेत भारत के सौ से अधिक मेहनतकश थे. कहने की जरुरत नहीं कि पूरी धरती इनकी मेहनत व लगन का लोहा मान चुकी है.        सफलता का झंडा बुलंद हो रहा है फिर भी कुछ ‘ नेगटिव आत्माएँ ’ बेचैन घूम रही हैं. बीते साल इन बेचैन आत्माओं ने न जाने कैसे-कैसे इल्जाम गढ़े – ‘ विकास कपड़े फाड़कर घूम रहा है. ’ ‘ विकास पगला गया. ’ ‘ जीडीपी की हालत खराब ’ . इन्हें नहीं दिखता कि बीते एक साल में बिलियनअर ( Billionaire ) क...

दूधनाथ सिंह व विवेकानंद को याद करते हुए...

हिंदी के वरिष्ठ व विशिष्ट साहित्यकार दूधनाथ सिंह नहीं रहे. इस रविवार दूधनाथ सिंह व विवेकानंद को साथ-साथ पढ़ रहा हूँ. 2003 में एक महत्वपूर्ण किताब आई थी – ‘ आख़िरी कलाम ’ . इस किताब की प्रस्तावना में दूधनाथ सिंह ने कितना सच लिखा था –        “...हमें इस बात का डर नहीं है कि लोग कितने बि खर जायेंगे , डर यह है कि लोग नितांत गलत कामों के लिए कितने बर्बर ढंग से संगठित हो जायेंगे. हमारे राजनीतिक जीवन की एक बहुत-बहुत भीतरी परिधि है , जहाँ ‘ सर्वानुमति का अवसरवाद ’ फल-फूल रहा है. वहाँ एक आधुनिक बर्बरता की चक्करदार आहट है. ऊपर से सबकुछ शुद्ध-बुद्ध , परम पवित्र , कर्मकांडी , एकान्तिक लेकिन सार्वजनिक , गहन लुभावन लेकिन उबकाई से भरा हुआ , ऑक्सीजनयुक्त लेकिन दमघोंटू , उत्तेजक लेकिन प्रशान्त – सारे छल एक साथ.”        सब कुछ फल-फूल रहा है. नितांत अकेलेपन में भी एक व्यक्ति भीड़ की तरह सोचने लगा है , भीड़ की तरह बोलने लगा है , भीड़ के खतरनाक कृत्यों को अंजाम देने लगा है. सब सही व कुछ भी गलत नहीं लगने के इस युवा दौर में हमनें अभी परस...

साल का गुजरना और डायरी का एक पन्ना

साल को एक पड़ाव मानें तो एक पड़ाव बीत गया. उमर थोड़ी और बढ़ गई. क्या खोया , क्या पाया – इस हिसाब-किताब का कोई इरादा नहीं , बैलेंस शीट अथवा प्रॉफिट लॉस अकाउंट भी नहीं बनाना. लेकिन हर घड़ी घबराया सा रहता हूँ – कुछ न कुछ खोजता ही रहता हूँ. यह खोज , कुछ पाने की लालसा नहीं , बल्कि खो गई किसी चीज की तलाश है. परेशानी यही है कि पता ही नहीं कि खोया क्या है फिर भी हर घड़ी कुछ खो जाने का अहसास रहता है और घबराया सा रहता हूँ कि वह मिला नहीं. जानकारों की ‘ थिंक पॉजिटिव थ्योरी ’ के मुताबिक़ खोने के अहसास की तीव्रता व घबराहट कम करने के लिये अपनी उपलब्धियों का जिक्र करता हूँ , उन्हें दुहराता हूँ. एक ऐसी दुनिया रचता हूँ जिसमें मुझे मेडल व सर्टिफिकेट मिलते हैं , लोग मेरे लिये तालियाँ बजाते हैं. जानकारों व विशेषज्ञों के कहे अनुसार मैं हर घड़ी मुस्कुराता रहता हूँ , आनंदित दिखता हूँ. बावजूद इसके असलियत यही है कि मेरी घबराहट कम नहीं हुई है , कुछ बेशकीमती खो गया है और मुझे मिल नहीं रहा. कुछ बेशकीमती खो गया है और मुझे मिल नहीं रहा. गुजरे साल के अंतिम दिनों में मैंने कोशिश की कि चलो खो गया तो उसे ‘ राइट...