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ये कवितायें भी तो प्रेम में ही रची गईं थीं...

  तुम्हारे पर कतर देती है....... घनघोर बारिश में मिलन की आस में लंबी यात्रा के पश्चात एक काली रात को जब वह दस्तक देता है अपनी प्रेयसी के दरवाजे पर तो अनायास ही कुछ घटित होता है, उसके बाद के “तुलसी” को सब जानते हैं. लेकिन दरवाजे पर घटित पल भर की घटना तुम्हारे जीवन में भी घटित होती है जब अपनी पूरी लय में मन की गति से भी तेज तुम, उड़ उसके पास पहुँच जाना चाहते हो और तुम्हारी अपनी “अलका” अपने हाथों तुम्हारे पर कतर देती है......... **************** अपनी प्रेयसी का संसार न जाने किसकी तलाश में भटकता हूँ और जब सूरज ढलता है वहाँ जा कर बैठता हूँ कि शीतल चांदनी का स्पर्श मदमाती निशा का नृत्य और सृष्टि की वीणा का साज होगा. आँखे बंद कर लेता हूँ कि तलाश पूरी हुई लेकिन होता है क्या सोचने मात्र से सहसा कोई जोर का धक्का देता है मैं धूल में होता हूँ चांदनी घबरा जाती है निशा का नृत्य थम जाता है और वीणा के तार टूट जाते हैं. धक्का देने वाला कोई और नहीं अपनी ही प्रेयसी का संसार है.

नौकरों की दुनिया में कॉन्स्टिपेशन

दुनिया को चलाने में नौकरों का बड़ा अहम रोल रहा है. सिविल सर्वेंट अथवा पब्लिक सर्वेंट में सर्वेंट अर्थात नौकर शब्द तो खुले तौर पर शामिल है ही. पिछले दिनों गरजते-बरसते सेवक नामक टर्म समेत तमाम खुबसूरत अलंकारिक टाइटलों जैसे कि एग्जीक्यूटिव, सी ई ओ, डायरेक्टर, मैनेजर, सेक्रेटरी आदि नौकरों की दुनिया में ही शामिल हैं. अब दुनिया को चलाने में नौकरों की अपने ढंग की अनूठी व्यवस्था होती है – कोई छोटा नौकर, कोई बड़ा नौकर. छोटे नौकर के नीचे और छोटे नौकर; बड़े नौकर के ऊपर और बड़े नौकर. इस व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में एक भ्रांति का बड़ा हाथ है. दूसरे शब्दों में कहें तो इस व्यवस्था की संजीवनी शक्ति एक भ्रम पर टिकी है जिसमें हरेक बड़े नौकर को स्वयं के मालिक होने पर पूरा यकीन होता है. साथ ही नौकरों के बीच यह मान्यता भी बड़ी प्रबल होती है कि सफल होने अथवा बड़े होने के लिए आवश्यक है कि कोई स्वयं को किस हद तक शक्तिशाली मालिक साबित करता है और शक्तिशाली साबित करने का सबसे आसान तरीका है – छोटे नौकरों को कोसते रहना, उन्हें यह अहसास कराते रहना कि वे कितने बड़े निकम्मे हैं. दूसरी ओर शक्तिशाली मालिक होने का दंभ भ...

आओ, प्रेम पर लिखते हैं ! - भाग - दो

वागर्थ के अक्तूबर अंक में वरिष्ठ कवि ज्ञानेन्द्रपति की एक बड़ी प्यारी कविता छपी है – ‘दो से शुरू करें’. कविता का सन्दर्भ दूसरा है. इसलिये उस कविता को अपनी सुविधानुसार उद्धृत करने की गुस्ताख़ी पर माफी मांग लेते हैं. वैसे भी कविताओं व शब्दों को अपनी समझ के अनुसार समझने की स्वतंत्रता तो रहती ही है, भले ही समझदार होने का दावा करने वाले विद्वान फतवा जारी करते रहें. और बात जब प्रेम की हो तो वैसे भी हर ओर प्रेम ही नजर आता है. तो ऐसे में प्रेम से भरे एक हृदय को यह कविता अलग ढंग से छूती है –        “छाती से लगा लूं        उर में भर लूँ शीतलता        तृप्त कर लूँ तल तक स्वयं को” यह जानते हुए भी कि सब कुछ मेरे ही अंदर है – प्यास भी, अमृत घट भी; तुमसे लिपटने की चाहत रहती है –        “दुर्लभ अवसर क्यों छोडूँ        .......... गले मिलने का        गले-गले गलने मिलने का      ...

तुम्हारी माँ का नाम क्या है ?

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मई 2016 के दूसरे पखवारे अखबारों में एक खबर आई थी. खबर यह थी कि दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने एक फैसले में पासपोर्ट बनवाने के लिए पिता का नाम बताए जाने की बाध्यता समाप्त कर दी. फिर अगस्त 2016 में इससे जुड़ी एक और खबर आई कि महिला एवं बाल विकास मंत्री ने विदेश मंत्री को पत्र लिखा है कि पासपोर्ट जारी करने के नियमों में आवश्यक संशोधन किए जायें ताकि पिता का नाम बताए जाने की बाध्यता न रहे. खबर आज की , इक्कीसवीं सदी की है. एक बच्चे को पासपोर्ट जारी करने से , एक दूसरे बच्चे को जन्म प्रमाणपत्र जारी करने से इंकार कर दिया जाता है क्योंकि वह या उसकी माँ, पिता का नाम नहीं बताना चाहते. सदियों पहले , रामायण/महाभारत काल में भी हमें पिता के नाम में ही दिलचस्पी थी. लव-कुश को देख पूरी जिज्ञासा यही है कि इन सलोने बच्चों के पिता कौन हैं. कर्ण अपनी सारी खूबियों के बावजूद जीवन भर अभिशप्त रहता है क्योंकि वह अपने पिता का नाम नहीं बता पाता. पिता के नाम के बगैर कैसी आइडेंटिटी , कैसा परिचय ? पिता की वजह से ही हम अस्तित्व में आये. और माँ ? माँ ! माँ का स्वयं कोई परिचय होता ही नहीं , कभी वह किसी की पुत्री या ब...