आलमारी
किसी देश में अवांछित शरणार्थियों की तरह घर में किताबें जहाँ-तहाँ दिखने लगी थीं. इधर-उधर, हर तरफ किताबों के बिखरे होने से शांति-भंग होने की आशंका व किताबों के इस अतिक्रमण के विरोध में निर्जीव व सजीव दोनों वर्गों के साझा मोर्चा लेने की तैयारी की खबर हवा में थी. संशय, विरोध, आशंका व तमाम कुढ़न के बावजूद आहत पक्ष ने समझदारी व विवेक का दामन थामते हुए कोई ‘एक्शन’ लेने से पूर्व नोटिस देने व बातचीत करने के प्रोटोकॉल का अनुपालन सुनिश्चित किया. आहत पक्ष के प्रतिनिधि ने पहले अपना दर्द बयां किया कि किताबों के इस बिखराव के कारण अराजकता किस हद तक बढ़ गयी है और वह दिन दूर नहीं जब वे रसोईघर में भी दाखिल हो जायेंगी. इसी के साथ चेतावनी भी दी गई कि यदि यह हुआ तो ठीक नहीं होगा, लेकिन बातचीत विफल न हो इसको ध्यान में रखकर प्रतिनिधि ने एक महत्वपूर्ण बात रखी -– ‘अराजकता की इस स्थिति से निपटने के लिए इन किताबों को क्यों न उनका देश अथवा घर दे दिया जाय. आलमारी क्यों न खरीद ली जाय !!!’ आलमारी खरीद ली गई और किताबों को उनका वतन मिल गया. सब करीने से सज...