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मई, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

काँच की छत और खुले आसमान का भ्रम

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आज अनायास ही बचपन की धुंधलाती स्मृति पटल पर दीना मुसहर की घरवाली चली आयी. वह दीना मुसहर के साथ काम करने आती थी और शाम को जब घर जाने लगती तो माँ उसे पौने दो सेर अनाज देती. पौने दो सेर – एक सेर दीना के लिए और तीन पाव उसकी घरवाली के लिए. दीना मुसहर की घरवाली अकेली नहीं थी, और भी औरतें आती थीं – सब एक पाव अनाज कम पातीं और खुशी – खुशी अपने घर चली जातीं. कोई सवाल नहीं करता. किसी के पास कोई सवाल भी नहीं था सिवाय दीदी के. दीदी हमेशा प्रश्न करती रहती और सबके चेहरे पर उतराते भावों के मजे लेती. लोगों को उसके सवाल समझने के बावजूद समझ में नहीं आते और उसके ऊपर बगैर जवाब सुने उसका जोर से हँस पड़ना – सब बड़ा उलझाऊ होता था. ऐसे में जब भी माँ दीना मुसहर की घरवाली को पौने दो सेर अनाज की मजूरी देती, दीदी माँ से पूछती –        “माँ, दीना बो (दीना की घरवाली) को तीन पाव और दीना को एक सेर. बेचारी कितना काम करती है. बाहर जाकर देखो दीना खाली बैठा बीड़ी पी रहा होगा. इसको सवा सेर दिया करो.”        माँ की जगह दीना बो सफाई देती –    ...

गाली में स्त्री

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जुलाई 2016 में भारतीय संस्कृति व सनातन धर्म की सर्वाधिक दुहाई देने वाली राजनीतिक पार्टी के उभरते नेता ने एक वरिष्ठ दलित महिला नेता को गाली दी , जिसे लेकर हंगामा बरपा हुआ. इसके साथ ही कुछ दिनों तक गालियाँ सुर्खियों में रहीं. वैसे गालियाँ हमारे जीवन का अहम हिस्सा हैं , हमें पता भी नहीं चलता और हमारे मुँह से अनायास ही गालियाँ निकल जाती हैं. ब्रिटिश लेखिका मेलिसा मोर गालियों पर लिखी अपनी किताब में कहती हैं कि गालियाँ देना , हमारे इंसान होने की निशानी है. यह हमारी बुनियादी जरूरत है ताकि हमारी भड़ास निकल सके.        गालियाँ देना हमारे इंसान होने की निशानी है !!! दिलचस्प बात है कि तमाम चीजें हमारी बुनियाद तय करती हैं और उनमें गालियाँ भी हैं , लेकिन गालियों की बुनावट , उसके भाषाविज्ञान पर ध्यान देने पर एक नया आयाम उभरता है – तेरे माँ की , तेरे बहन की , मादर** , बहन**. कितने कमाल की है हमारी प्रयोगधर्मिता. आखिर तमाम गालियों में माँ , बहन व बेटी ही क्यों हैं. जिस धरती पर भारत माता और गौ माता के नाम पर सपूतों के खून उबाल मारने लगते हों उनकी बोलियों और ...