गिद्ध पत्रकारिता
मई 2021 के प्रथम सप्ताह में अलग-अलग व्हाट्सएप ग्रुप में एक ही मैसेज दिखा जिसका शीर्षक था, गिद्ध. इस मैसेज की शुरुआती पंक्तियाँ हैं-
“क्या आपको उस चित्र
की याद है?
उस चित्र का नाम है-
‘गिद्ध और छोटी बच्ची’। इस चित्र में एक
गिद्ध, भूखी बच्ची की मृत्यु का इंतजार कर रहा है। एक दक्षिण अफ्रीकी
फोटो पत्रकार केविन कार्टर ने इसे मार्च 1993 के अकाल में सूडान
में खींचा था। उस चित्र के लिए उसे पुलित्जर पुरस्कार दिया गया
था। लेकिन इतना सम्मान प्राप्त करने के बाद भी कार्टर ने 33 वर्ष की उम्र में
आत्महत्या कर ली थी।”
इस व्हाट्सएप संदेश के अनुसार वह पत्रकार केविन कार्टर भी एक गिद्ध ही था जो बच्ची को बचाने की बजाय अपनी वाहवाही हेतु फोटो खींचता रहा और आगे अपने इस कृत्य से उसे इतनी आत्मग्लानि हुई कि उसने आत्महत्या कर ली. यह मैसेज मूलतः पिछले एक महीने से भारतवर्ष में मचे हाहाकार को कवर करते पत्रकारों को गिद्ध साबित करता है. इस मैसेज की कुछ और पंक्तियां हैं-
“....आज फिर, अनेक गिद्ध हाथों
में कैमरा लेकर पूरे देश से अपने घर लौट रहे हैं, जो केवल जलती हुई
चिताओं के और ऑक्सीजन के अभाव में दम घुटने से मरने वाले लोगों के चित्र खींच रहे
हें और उनको ऑनलाइन बेच रहे हैं।
इन गिद्धों को मौतों
की चिन्ता करने के बजाय उनके समाचार एकत्र करने की चिन्ता अधिक है, ताकि चैनलों की
टीआरपी बढायी जा सके। वे जलती हुई चिताओं में ईंधन डालकर ब्रेकिंग न्यूज एकत्र
करने में व्यस्त हैं।
केविन कार्टर में
स्वाभिमान था, इसलिए उसने आत्महत्या कर ली। लेकिन ये
पत्रकार नामधारी गिद्ध गर्व के साथ ब्रेकिंग न्यूज बनाने में व्यस्त हैं।”
महज 33 साल की
उम्र में भारी अवसाद की दशा में पृथ्वी ग्रह और इस पर बसने वाली महान एवं अतिसभ्य
प्रजाति को सदा के लिए अलविदा कहने वाले फोटो पत्रकार केविन कार्टर को जानना जीवन
की विसंगतियों व अंतर्मन में हो रहे द्वंद से उपजे अवसाद से गुजरना है. केविन
कार्टर होने का मतलब है, चमकती व्यवस्था व स्थापित परंपरा के महिमामंडन में छुपाए
जा रहे झूठ और दर्द को उजागर करने की दुस्साहस प्रवृत्ति का होना. रंगभेद अर्थात
गोरों के हाथों काले अफ्रीकियों के उत्पीड़न की समस्या से जूझते दक्षिण अफ्रीका के एक
गोरे परिवार में जन्मा व पला-बढ़ा केविन बचपन में काले लोगों पर पुलिस के जुल्म को
देखकर व्यथित होता और परेशानी की दशा में अपने माँ-बाप से उलझता- ‘इस जुल्म के
खिलाफ हमलोग कुछ क्यों नहीं कर सकते. हमलोग इन पुलिस वालों से क्यों नहीं भिड़ सकते.’
बड़े होने पर सेना की नौकरी के दौरान अन्य गोरे सैनिक केविन की खिल्ली उड़ाते कि वह
‘Nigger lover’ है (Nigger कालों के लिए प्रयुक्त होने वाला अति अपमानजनक उपमा है
जिसके प्रयोग पर अब कानूनन रोक लगा दी गई है). एक बार वह फौजी मेस में काम करने
वाले काले वेटर का पक्ष लेने के कारण गोरे सैनिकों द्वारा पिटा भी. अंततः वह फौज से
बगैर बताए निकल गया. महज 20 साल का केविन अपने माँ-बाप के पास,
अपने घर लौटना चाहता था लेकिन फ़ौज छोड़ने की शर्मिंदगी के एहसास के कारण वह घर लौट
न सका और भारी अवसाद की दशा में उसने पहली बार आत्महत्या की कोशिश की जो असफल रही
क्योंकि नियति ने उसके लिए कुछ और तय कर रखा था- उसे दुनिया को आईना दिखाना था,
नंगे सच का आईना. वह फोटो पत्रकार बन गया और दक्षिण अफ्रीका में व्याप्त दंगे व
हिंसा को कवर करने लगा. केविन और उसके तीन दोस्तों की फोटो पत्रकारिता इस कदर
जनमानस पर छाने लगी कि उन चारों की टीम को ‘बैंग-बैंग क्लब’ कहा जाने लगा.
जब केविन
दक्षिण अफ्रीका की हिंसक त्रासदी को कवर कर रहा था, तभी सूडान गृह-युद्ध व भारी अकाल
की पीड़ा झेल रहा था. सूडान में हजारों-लाखों लोग भूखों मर रहे थे लेकिन बाकी दुनिया
को अकाल पीड़ित सूडान की इस त्रासदी की भयावहता का अंदाजा भी नहीं था. ऐसे में
न्यूयॉर्क टाइम्स 26 मार्च 1993 को केविन कार्टर का फोटो, ‘The
Vulture and the little girl’ छापता है और पूरी दुनिया में भूचाल आ जाता है. विचलित
करने वाली इस तस्वीर से देखते-देखते विश्व समुदाय का ध्यान सूडान व उसकी समस्या पर
चला जाता है, देखते ही देखते सूडान का दुर्भिक्ष चर्चा के केंद्र में आ जाता है.
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या केविन भी एक गिद्ध था जो पैसे के लिए या महज
लोकप्रियता की खातिर ऐसे फोटो उतारता है.
सूडान के
दुर्भिक्ष में मदद हेतु तमाम स्वयंसेवी संस्थाएं काम कर रही थीं, यहाँ तक कि
संयुक्त राष्ट्र संघ के तहत भी राहत कार्य जारी था लेकिन वह पर्याप्त नहीं था. ऐसे
में केविन कार्टर फोटो खींचने के बजाय यदि राहत कार्य में जुट जाता तो पहले से चल
रहे राहत कार्य से जुड़े लोगों की संख्या में अदद एक की वृद्धि होती लेकिन उसके एक
फोटो ने वह कमाल कर दिखाया जो वह चाह कर भी न कर पाता. कहने का मतलब कि किसी घटना
विशेष में सीधे मदद कर लगने की अपनी महत्ता है तो उस घटना को रिकार्ड करने व उसे
लोगों तक पहुँचाने की अपनी अलग महत्ता है. दोनों के रोल अलग हैं, कोई कमतर व कोई
श्रेष्ठ नहीं. यहाँ सोचने की जरूरत है कि घटना को रिकार्ड करके लोगों तक पहुँचाने
की बात (यानी पत्रकारिता) को कोसने के पीछे कोई और मंशा तो नहीं ! खैर इस मंशा की
बात आगे करेंगे.
तो
पत्रकारिता का प्रथम व अंतिम दायित्व है कि वह व्याप्त विसंगतियों, अन्याय, पीड़ा
व दर्द को रिकॉर्ड करे, सवाल खड़ा करे, पड़ताल कर सूचना इकट्ठा करें और एकत्रित
सूचना को दूर-दिगंत तक फैलाये ताकि कुछ बेहतर हो. सिस्टम में जिनकी जवाबदेही बनती
हो, उन्हें उनकी जिम्मेदारी का अहसास कराये और जो आपराधिक लापरवाही में लिप्त हों
उनका सच उजागर करे ताकि व्यवस्था में वांछित सुधार हो सके. यही पत्रकारिता का
मानवीय पक्ष है और ऐसा करके ही एक पत्रकार अतिमानवीय कार्य करता है.
लोकतांत्रिक
व्यवस्था में हमनें पत्रकारिता अर्थात मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा है; प्रथम
स्तंभ विधायिका, दूसरा कार्यपालिका, तीसरा न्यायपालिका. मीडिया वह आधारभूत स्तंभ
है जो बाकी तीनों पर नजर रखे और हाशिये पर खड़े आम आदमी की आवाज बने. विधायिका ने यदि
गलत अथवा जनहित के विरुद्ध कोई कानून पारित किया, कार्यपालिका के काम करने का
तरीका यदि जनविरोधी है अथवा न्यायपालिका के द्वारा किए गए फैसले ठीक नहीं हैं तो
मीडिया सवाल खड़े करे, यही उसकी प्राथमिक जिम्मेदारी है. मीडिया को यदि कसौटी पर
कसना हो तो उसका पहला टूल है कि वह जिम्मेदार पदों पर बैठे ताकतवर लोगों से कितने
सवाल करती है. इसके बरक्स यदि वह सत्ता का गुणगान कर रही है तो यकीनन वह अपना
दायित्व, अपना धर्म नहीं निभा रही. न्यू इंडिया के भीड़-भारत में हमनें तमाम तरह की
नई परिभाषाएं गढ़ी हैं, उनमें से एक है कि मीडिया को बैलेंस करके चलना चाहिए. इसी बैलेंसिंग
एक्ट की अवधारणा में मीडिया की आत्मा को मार डालने की बात है. एक उदाहरण से इस बात
को समझा जा सकता है. सरकार का अपनी नीतियों अपने काम के प्रचार-प्रसार हेतु एक
पूरा तंत्र है, जनता के पैसे से चलने वाला एक पूरा का पूरा मंत्रालय है जिसका काम
ही है सरकार का प्रचार करना. जनता के पैसे से मंत्री जी, मुख्यमंत्री व प्रधानमंत्री
जी के मुस्कुराते फोटो वाली होर्डिंग चौक-चौराहे अथवा हाईवे पर लगाई जा सकती है,
अखबारों में पूरे पृष्ठ का विज्ञापन दिया जा सकता है. फिर सरकारी दावों की हकीकत
बताने की जिम्मेदारी किसकी बनती है ? आम जनता की दुर्दशा, बदहाली को स्वर कौन देगा
?
ऐसे में
जनता की बदहाली की चर्चा करने वालों को कोसते हुए उन्हें निगेटिव अथवा गिद्ध
पत्रकारिता में लिप्त होने की मंशा पर कायदे से विचार करने की जरूरत है. बच्चे
बचपन में सुपरमैन के किरदार से अभिभूत रहते हैं- सुपरमैन सबसे ताकतवर है, सबसे
अच्छा भी है और वह सब ठीक कर देगा, सुपरमैन यूनिवर्स के सारे बैडमैन को मार देगा,
वह चुटकियों में बैडमैन के द्वारा फैलाये गए वायरस को भी मार देगा. अब कोई उस
बच्चे से कह दे कि सुपरमैन असलियत में है ही नहीं, वह महज नाटक कर रहा है तो बच्चा
दुखी हो जायेगा, रोने लगेगा और क्रोधित भी हो जायेगा. होता है कभी-कभी कि
लोकतांत्रिक देशों में भी ऐसे ही सुपरमैन की छवि गढ़ी जाती है- एक महानायक की जो इतिहास
में पहली बार अवतरित हुआ है, वह सब ठीक कर देगा और गलती ?? गलती तो वह कर ही नहीं
सकता. ध्यान देने पर साफ़ है कि बच्चे भी एक दिन बड़े हो जाते हैं लेकिन बड़े ? तो
कोशिश यही रहती है कि जिस महानायक की छवि हमनें निर्मित की है वह गिरनी नहीं
चाहिए, भरोसा टूट जायेगा.
बस इसीलिए इस
अभेद्य छवि को बनाये रखने में जो सहयोग करे वह है- सकारात्मक पत्रकारिता, पॉजिटिव
मीडिया और जो ऐसा नहीं कर पा रहे, वे हैं गिद्ध पत्रकार. यह सोचने की जरूरत है कि
आज के हाहाकारी दौर में एक पत्रकार से हम किस तरह की सकारात्मक अथवा पॉजिटिव रिपोर्टिंग
करने की उम्मीद करते हैं, शायद यही कि ऑक्सीजन के लिए कतारबद्ध लोगों का फोटो
खींचने की बजाय स्वयं लाइन में लग जाए या चिताओं के लिए लकड़ी की व्यवस्था में जुट
जाए. दूसरा यह भी कि कि मंत्री जी, सीएम साहब, पीएम साहब ने जो ऐलान किया उस ऐलान
को ऐतिहासिक करार करते हुए उनका महिमामंडन करना, बस उजला ही उजला. कहने की जरूरत
नहीं कि सरकारी अक्षमता को छुपाना, अपनी लापरवाही से स्थिति को बद से बदतर करने के
लिए जिम्मेदार लोगों का महिमामंडन एक सच्चे पत्रकार के लिए नैतिकता की दृष्टि से घृणित
कृत्य है. ऐसा करने वाले पत्रकार लोकतंत्र एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था को दीमक की
तरह चाटने के लिए पर्याप्त हैं. गिद्ध तो किसी के मरने का इंतजार करता है मगर दीमक
अच्छे-खासे मजबूत ढाँचे को देखते-देखते चाट जाता है. ऐसी पॉजिटिव पत्रकारिता से
सचमुच क्या व्यवस्था सुधर जाएगी. कहने की जरूरत नहीं कि ऐसा करने से कुछ और नहीं
बल्कि केवल छवि चमकेगी और उनकी निरंकुश तानाशाही प्रतिदिन बढ़ती चली जाएगी. पॉजिटिविटी
की बढ़ती अपेक्षा के दृष्टिगत संभव है कि आगे हम सरेआम रोने-कलपने वालों पर भी
प्रतिबंध लगा दें क्योंकि उससे माहौल में नेगेटिविटी फैलती है. कुल मिलाकर
भीड़-भारत की यह पॉजिटिविटी कुछ और नहीं बल्कि मुश्किल से अर्जित लोकतंत्र व
व्यक्तिगत आज़ादी को मिटाने का इंतजाम है.
बदहाली को
कवर करते पत्रकारों से संवेदना की उम्मीद करते हुए उसके आत्मग्लानि से मर जाने की
अपेक्षा करने की पॉजिटिव सोच इस बदहाली के लिए जिम्मेदार लोगों से किसी आत्मग्लानि
की उम्मीद क्यों नहीं करती; पत्रकार की रिपोर्टिंग से जिनकी मॉर्निंग टी या डिनर
का स्वाद बिगड़ गया उनसे आत्मग्लानि की उम्मीद क्यों नहीं करता कि तुम कब जागोगे या
मृतप्राय ही रहोगे.
अंत में यह
बात सच है कि तमाम प्रतिकूल परिस्थिति का सामना करने के लिए सकारात्मक सोच की
दरकार होती है लेकिन आम लोगों की जान की कीमत पर जिम्मेदार पदों पर काबिज अक्षम लोगों की
छवि को बचाने या कि चमकाने के लिए सामूहिक पॉजिटिविटी की अपेक्षा करना किस हद तक
बेशर्मी हो सकती है इसकी सहज कल्पना की जा सकती है बशर्ते थोड़ी भी संवेदना बची
हो. पॉजिटिविटी की इस बेशर्म अपेक्षा पर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कुछ पंक्तियाँ बरबस याद आ जाती हैं–
“यदि
तुम्हारे घर के
एक कमरे में आग
लगी हो
तो क्या तुम दूसरे
कमरे में सो सकते हो?
यदि तुम्हारे घर
के एक कमरे में
लाशें सड़ रहीं
हों
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में
प्रार्थना कर सकते हो?
यदि हाँ
तो मुझे तुम से
कुछ नहीं कहना है।”
******************
There is no problem with the photograph being circulated to show the pathetic conditions. But after taking the photograph he could have picked the child up and handed him over to the social workers for doing their bit. It's just like witnessing an accident and taking photographs without calling the ambulance. Empathy should be accompanied by action wherever possible. If somebody was stopping him from helping the child Ok then but saying he left him because he would have missed his plane ... difficult to understand. On the other hand he could have been truthful and strong enough to say that that was not his job...then no question of guilt. He should have continued with his reporting...which was of course serving humanity in bringing to forefront such conditions and forcing concerned organisations to take action.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंसाहित्य समाज का दर्पण होता है। हर प्रोफेशन की अपनी जिम्मेदारियां होती हैं। फोटोग्राफर का कार्य है फोटो खींचना तथा जनता को वास्तविक स्थिति से अवगत कराना।
जवाब देंहटाएंकहावत है:
जिसका काम उसी को छाजे, और करे तो डंडा बाजे
यदि हमें डॉक्टरी का ABCD नहीं आता है और हम किसी मरीज पर अपने अधकचरे ज्ञान का प्रयोग, भले ही अच्छे उद्देश्य से करना चाहते हों, हो सकता है किसी अनहोनी होने का कारण बन जाय।
सभी तथ्यों का सुंदर तथा निष्पक्ष चित्रांकन एवं सटीक टू द पॉइंट विश्लेषण किया गया है। विलक्षण!!!
बधाई ��
धन्यवाद सर
हटाएंConfusion is always everywhere but how can we perceive them, depends. Question about clicking this picture definitely makes Confusion to Kelvin afterthat but deciding what and how to take this by world was not his problem. Yes he did his job, but alas.... world confused him and unfortunately....With this story one thing is confirmed that do your job....belaus...."Bhar me jaye Dunia...basss".
जवाब देंहटाएंप्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद
हटाएंVery well articulated and incisive .Thankyou very much
जवाब देंहटाएंप्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद
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